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________________ आदत ही बन जाती है दोषारोपण करना। गलत काम खुद करेंगे, लेकिन नाम लगाएँगे दूसरों का। उनकी वैचारिक प्रक्रिया, उनकी जीवन पद्धति कापोत लेश्या की हो जाती है। लकड़ी के ऊपर कितने भी सोने-चाँदी के पत्तर चढ़ा दो, जब उतारोगे उतर जाएँगे, लकड़ी तो वही रहेगी। ‘अतिशोकाकुल रहना' कापोत लेश्या का अगला लक्षण है। हमारा जिस-जिस के प्रति राग होता है; फिर चाहे वह जड़ हो या चेतन, उससे हमारा शोक जुड़ा रहता है। किसी वस्तु या व्यक्ति से तुम्हें अत्यधिक लगाव हो तो उसके न रहने पर तुम्हें शोक होता है। सोचो, तुम्हें किस बात का शोक है उसके न रहने का या तुम्हारे राग के टूट जाने का। तुम्हें शोक होता है अपने स्वार्थों के कारण। तुम अखबार में रोज ही खबरें पढ़ते हो अमुक स्थान पर भूकम्प से हजारों लोग मारे गए, किसी ने दूसरे की हत्या कर दी, और भी कितनी ऐसी खबरें, तब क्या तुम्हें शोक होता है ? अपने आपको टटोलें। कापोत लेश्या का अंतिम लक्षण है-'अत्यंत भयभीत होना' । जीवन से साहस के साथ जुड़े रहो। मृत्यु से मत डरो, क्योंकि किसी की मृत्यु दो बार नहीं होती है। तुमसे कोई कह दे कि तुम आज शाम को मर जाओगे, चाहे न भी मरने वाले हो, लेकिन भय तुम्हें समाप्त कर देगा। भयभीत सभी हैं। तुम जीवन की सच्चाई से भयभीत हो। तुम जानते हो गहरे में कि जो होने वाला है वह होगा फिर भी डर से काँप रहे हो । भगवान कहते हैं-अभय । जो नहीं होने वाला है, वह नहीं होगा, उसका भय क्या करना ! और जो होने वाला है, वह होगा, उसका कैसा भय करना ! इसलिए भय के चलते जो भगवान की पूजा करते हैं वे धर्म में प्रविष्ट नहीं हो सकते। भगवान कहते हैं अत्यन्त भयभीत न रहो, अतिशोक न करो, निंदा में रस न लो और रुष्ट मत बनो। यह संसार, जिसे हमने जाना है ऐसे परदों से निर्मित है कि जिन्हें हटाना ही होगा। उनके पार ही धर्म का राज्य है। अब तक हमने जो तीन लेश्याएँ ली हैं, वे दूषित तो हैं ही साथ ही साथ उनकी सतहें और परदे मोटे हैं। अब हम भीतर की जिस दहलीज पर अपने कदम बढ़ा रहे हैं वे क्रमशः सुनहरे और उज्ज्वल हैं। परदे तो हैं लेकिन 'झीणी-झीणी बीनी रे चदरिया' पतले हैं, पारदर्शी हैं। कृष्ण, नील और कापोत धर्म, आखिर क्या है ? 134 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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