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________________ और इस मार्ग पर चलने के लिए अनन्त धैर्य की आवश्यकता है । जब व्यक्ति 'सर्वतोभावेन' साधना के लिए स्वयं को समर्पित करेगा तो स्वतः ही शरीर, मन और विचारों पर अपना अंकुश लगा सकेगा । आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में योग के अयोग को योग माना है । आखिर यह योग क्या है ? मन-वचन-काया ही योग है। आदमी जन्म-जन्मांतर से इन्हीं से जुड़ा है, इन्हीं में बहा है। हमारे पास कई साधक आते हैं कहते हैं हमें साधना से यह शक्ति चाहिए, वह शक्ति चाहिए। क्या हम अपनी शक्तियों का जागरण कर सकते हैं? क्या साधना में जमीन से ऊपर उठ सकते हैं ? किसी के मन की बात समझ सकते हैं ? सब कुछ संभव है। ये मत समझो कि साधना कुछ परिणाम नहीं देती है। साधना के बड़े गहरे परिणाम होते हैं और शायद उन लोगों को कभी न मिले जो बार-बार परिणामों को ढूंढने का प्रयास करते हैं और अभी तो साधना शुरू ही कहाँ हुई है । केवल पद्मासन लगाकर आँखें बंद करने से ध्यान की पूर्णता थोड़ी ही मिल जाएगी। पहले मन-वचन-काया को स्थिर करो, उनको साधो ताकि वे साधनानुकूल बनें। तुम लम्बी देर तक स्वयं को साधना के लिए समर्पित करो ताकि एकनिष्ठा के साथ अपनी भीतर की प्रयोगशाला में जीवन-विज्ञान के प्रयोग कर सको । जैसे एक वैज्ञानिक किसी विशिष्ट वस्तु का आविष्कार करने के लिए पुनः पुनः भाँति-भाँति के तत्त्वों पर • प्रयोग करता है और तब तक उसके प्रयोग जारी रहते हैं जब तक परिणाम न मिल जाए। ध्यान भी तो जीवन - विज्ञान का एक प्रयोग ही है । यहाँ सारे प्रयोग स्वयं पर, स्वयं की चेतना पर किये जाते हैं । मन, वचन, काया को स्थिर करने के बाद ध्यान में अपने चित्त को निश्चल करें। साधना के लिए ऐसा करना आवश्यक है। जिसका चित चलायमान है वह भला ध्यान में इधर-उधर भटकने के अलावा क्या कर पायेगा। जिसका चित्त शांत है, वह तो ध्यान में जब भी बैठेगा सहजतया भीतर प्रवेश कर जायेगा। अंशात चित्त ध्यान में भी इधर-उधर की उधेड़बुन के अलावा कुछ न कर पायेगा । जो साधक मन, वचन और काया को स्थिर कर ध्यान में चित्त को निश्चल कर चुका है, उस साधक के लिए नगर या जंगल में काई फर्क नहीं रह जाता। जो तटस्थ है, जिसका साक्षित्व जागृत हो चुका है, जिसने बोध का दीप जला लिया है, वह जंगल में है या महल में उसे कहाँ धर्म, आखिर क्या है ? 112 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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