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________________ फर्क पड़ता है। भरत और जनक जैसे लोग राजमहलों में रहकर भी साधनानिष्ठ जीवन जी लेते हैं और विश्वामित्र और पराशर जैसे ऋषि जंगल में भी छोटे से निमित्त से परास्त हो जाते हैं। स्थान गौण है, वेश और देश भी गौण हैं, मुख्य है हमारी अपनी ही चित्त और चेतना की वृत्ति। आत्म-साधक चाहे संसार में रहे अथवा हिमालय की गुफाओं में, उसके लिए दोनों ही समान हैं। वह तो विषय-वासना के निमित्तों के बीच रहकर भी कीचड़ में कमल की तरह पूर्णतया निर्लिप्त रहता है। यह अन्तर्निर्लिप्तता का ही प्रभाव है कि जिसके चलते सिंह की गुफा में और साँप की बांबी के किनारे खड़े होकर साधना करने से भी ज्यादा महान महलों में कोशा गणिका के पास प्रवास करने वाले स्थूलिभद्र कहलाते हैं। यह सूत्र ऐसे साधकों के लिए ही है। जो किसी भी निमित्त को पाकर अप्रभावित रहते हैं। भगवान कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति महलों में रहे या जंगल में समान ही रहता है। इसी बिन्दु से जुड़े भगवान के एक और सूत्र पर हम चर्चा करते हैं। भगवान कहते हैं जह चिरसंचिय मिंधण-मनलो पवण सहिओ दुयं दहइ। तह कम्मेधण ममियं, खणेण झाणानलो डहई।। जैसे चिर संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षण भर में भस्म कर डालती है। ___ भगवान कहते हैं कि चिरसंचित ईंधन को जैसे वायु से उद्दीप्त आग जला डालती है। उपमा साधक के लिए काम की है क्योंकि साधक प्रायः यह सोचा करता है मैंने इतने लम्बे काल तक कर्म के बन्धन किये हैं क्या एक जीवन की साधना से इनसे मुक्ति मिल जाएगी। उन साधकों के लिए यह उपमा काम की है। जैसे लकड़ियों के ढेर को आग की एक चिनगारी राख में तब्दील करने की क्षमता रखती है, वैसे ही जो साधक ध्यान रूपी अग्नि को प्रज्वलित कर चुका है, उसके अपरिमित कर्म-ईंधन क्षण भर में जल कर नष्ट हो जाते हैं। पता है महावीर के पूर्व जन्मों के कितने कर्म बँधे हुए होंगे? अनंत जन्मों के। लेकिन जब ध्यान की अग्नि जली, एक ही जन्म में सारे कर्म जल गए, नष्ट हो गए। गीता कहती है जिसने ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित कर ली, उसके सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं। गीता जिसे ज्ञान कहती है महावीर उसे ध्यान मुक्ति का मूल मार्ग : ध्यान 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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