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________________ करनी पड़ती है । इस विषय में भगवान का यह सूत्र क्रांतिकारी है। महावीर के अनुसार जिस साधक ने ध्यान की पूर्व भूमिका तैयार कर ली है, वह जंगल में हो या जयपुर में, भले मुम्बई की अट्टालिकाओं में भी क्यों न हो, वह वहाँ भी ध्यान कर सकता है क्योंकि वह योग से ऊपर उठ जाता है । भगवान कहते हैं कि जिन्होंने मन, वचन और काया के योग का अयोग कर लिया है। इसे समझें, चेतना में प्रवेश करने के लिए जो प्रमुख बाधक तत्त्व हैं - वे शरीर, मन और वचन या विचार ही हैं। जब भी व्यक्ति साधना के लिए कदम उठाता है, ध्यान की बैठक लगाता है तो पहला ही बाधक बनता है उसका अपना शरीर। आराम में जीने का आदी और विषय - सुखों को भोगने का अभ्यासी यह शरीर साधक की साधना में तब तक मददगार नहीं होगा जब तक कि इसे साध न लिया जाए। जैसे सधी हुई वीणा ही संगीत पैदा करने में समर्थ होती है, वैसे ही सधा हुआ शरीर ध्यान-योग में मददगार बन सकता है। शरीर की केवल बाह्य-शुद्धि आवश्यक नहीं है, अन्तर-शुद्धि कहीं ज्यादा जरूरी है। आदमी पाँच-दस मिनट तो सीधी कमर से ध्यान में बैठ जाएगा उसके बाद कमर में दर्द उठ आता है क्योंकि अब तक हम या तो सहारा लेकर बैठने के आदी रहे या फिर झुककर । भगवान कहते हैं कि साधक शरीर को साधे, उसका गोपन करे, उसे स्थिर करे, ताकि वह साधना में सहायक बन सके। और दूसरी बात वे कह रहे हैं मन को स्थिर करें । बात महत्त्वपूर्ण है। मन को स्थित और स्थिर करने के अभाव में भले ही वर्षों ध्यान की बैठकें लगती रहें, लेकिन कोई परिणाम हाथ नहीं लगेगा। ठीक वैसे ही जैसे गंदे झाडू से कोई आंगन साफ करे । तीसरी बात भगवान कहते हैं वचन और विचार को स्थिर करने की । वर्षों तक ध्यान करने के बाद आप साधकों की यह शिकायत रहती है कि अभी भी मन या शरीर साधना के लिए अनुकूल नहीं हो पा रहा है। यर्थाथतः संसार और उसके विषय-भोगों की संस्कार - धारा जन्म-जन्मान्तर से हमारे साथ चली आ रही है और उन्होंने हमारे चित्त - चेतना में इतनी गहरी जड़ें जमा दी हैं कि जल्दी उनको उखाड़ पाना संभव नहीं दिखता। साधना के संस्कार जगे हैं साल-दो साल से और संसार और वासना के संस्कार हैं जन्म-जन्मान्तर से। इसलिए थोड़ा समय लगेगा ही । यह अनन्त का मार्ग है मुक्ति का मूल मार्ग : ध्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only 111 www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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