________________
आत्म-स्वरूप को जाने। क्या मैं नाम हूँ, क्या मैं रूप हूँ, रस हूँ, गंध हूँ, स्पर्श हूँ, स्वाद हूँ, मैं कौन हूँ ? यह बोध होता है। ध्यान का कार्य एकाकीपन का बोध करवाना है। मैं नितांत अकेला हूँ।
ध्यान का एक अन्य परिणाम है जीवन में महामौन। साधक बोलते हुए भी मौन होता है। वह मन से शांत-अविचल रहता है। उसका मन उज्ज्वल और निर्मल होता है। अभी तो मौन रहने की प्रतिज्ञा करनी होती है, प्रयास करना पड़ता है, लेकिन ध्यानी के मौन घटित होता है। जब वह अपने आत्म-ध्यान में डूबता है तब तो 'इक साधै सब सधै' चरितार्थ होता है। जिसके लिए वेद कहते हैं 'तत्त्वमसि'-अरे तू उसकी कहाँ तलाश कर रहा है, वह ईश्वर, वह दिव्य परम चेतना तो हमारे भीतर है। अकारण ही परम मौन उतरता है और पनपता है अकारण ही प्रेम। हां, यह भी ध्यान का परिणाम है कि आपके अंदर करुणा, दया और प्रेम अनायास आ जाता है। आपको पता भी नहीं चलता और आप करुणावंत हो जाते हैं, सारे जहाँ पर स्नेह-वर्षण करते हैं। अभी तो सकारण दया करते हैं, दिखावटी प्रेम-प्रदर्शन भी करते हैं, लेकिन ध्यान के परिणाम में यह स्वयमेव प्रतिफलित होता है।
जब वह ध्यान के फलस्वरूप उस परम सत्ता को उपलब्ध कर लेता है, तो वह पत्तों से बातें करता है, पत्थरों से संलाप करता है। उसका प्रेम अकारण प्रकट होता है। हाँ, ध्यान हमारे जीवन में ऐसा सब कुछ कर सकता है। ध्यान-साधना से जुड़ा भगवान का दूसरा सूत्र है
थिरकय-जोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चल-मणाणं।
गामम्मि जणाइण्णे, सुण्णे रण्णे व ण विसेसो।। जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
भगवान का यह सूत्र काफी उपयोगी है, अब तक हमारी यह मानसिकता बनी रही है कि ध्यान करने के लिए आदमी को गहन जंगलों में ही जाना होता है, वनवास लेना होता है या हिमालय की गुफाओं में जाकर साधना
धर्म, आखिर क्या है?
mo
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org