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________________ आपने भगवान महावीर के जीवन की बहुत-सी घटनाओं को पढ़ा होगा। लेकिन आज मैं जिस घटना की चर्चा करने जा रहा हूँ, वह हमारे जीवन से छूट गई है, क्योंकि हमने महावीर के जीवन को आधा-अधूरा ही पढ़ा है। हम यह तो जानते हैं कि महावीर के कानों में कीलें ठोंकी गईं और वे उन्हें सहन कर गए। हम यह भी जानते हैं कि उनके पांव में चंडकौशिक सर्प ने डंक मारा और उसे भी वे सहन कर गए। उनके पांवों में अंगीठी जलाई गई और उन्होंने उसे भी सहन कर लिया। उन्हें कुएँ में उल्टा लटकाया गया और वे सहन कर गए। उनके पीछे कुत्ते छोड़े गए और वे सहन कर गए। कानों में कीलें ठोके जाने की घटना तो हम सब जानते हैं, लेकिन आगे का प्रसंग बहुत मार्मिक है। कुछ दिनों बाद एक वैद्य ने उन कीलों को बाहर निकाला। जिस समय कान में से कीलें निकाली जा रही थी; सम्पूर्ण साधनाकाल के दौरान पहली बार, भगवान की आँखों में से आँसू आ गए। वैद्य ने पूछा, 'क्षमा करें भगवन् , क्या इतनी अधिक पीड़ा हो रही है ? मैं तो आपकी पीड़ा को दूर कर रहा हूँ, आपके हर दर्द को कम करने की कोशिश कर रहा हूँ। क्या इतनी पीड़ा हो रही है जिससे कि आपकी आँखों में आँसू आ गए ?' भगवान् ने करुणा भरे भाव से कहा, 'वत्स, मेरी आँखों में आँसू पीड़ा से नहीं आए हैं, ये आँसू तो करुणा और दया के आँसू हैं, मैं सोच रहा हूँ कि जब मैं साधना काल में था तो मेरे कानों में कीलें ठोंकी गईं और मैं सहन कर गया, लेकिन जब उस ग्वाले के कान में कीलें ठोंकी जाएंगी तो वह बेचारा कैसे सहन करेगा!' इसे कहते हैं प्रेम और अन्तर् हृदय की करुणा कि जिसने कान में कीलें ठोंकी, उसके प्रति भी कल्याण की कामना। महावीर तो वही होता है जो जीवन में महानता को जीता है। जो तुम्हें क्रॉस पर लटकाये, तुम उसके लिए भी कल्याण की कामना करो, तभी तुम जीसस बन पाओगे। आप अपने द्वारा त्याग की भावना को प्रस्तुत करें। अगर आप शिक्षक हैं तो किसी भी एक गरीब छात्र को नि:शुल्क पढ़ाएँ। यदि आप डॉक्टर है तो प्रतिदिन किसी एक जरूरतमंद रोगी का इलाज निःशुल्क करें । अगर आप व्यवसायी हैं तो अपने व्यापार का गुर किसी एक व्यक्ति को सिखाकर उसे पांवों पर खड़ा करने का पुण्य अवश्य कमायें। आपका यह छोटा-सा सहयोग मानवता के लिए स्वस्तिकर होगा। 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003885
Book TitleJivan ki Khushhali ka Raj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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