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प्रभु मुझे सद्बुद्धि दो, जिन्हें मैं बदल न सकूँ, उन्हें स्वीकर कर लूँ । मुझे साहस दो, हो सके तो मैं स्थिति को बदल दूँ । मुझे शक्ति दो कि मैं सुखदुःख से ऊपर उठँ । होनहार को, भवितव्यता को स्वीकार करूँ
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स्वयं के दुर्भाग्य एवं कठिनाइयों हेतु व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेदार है । उसे यह चिन्तन करना चाहिए कि अपने अध: पतन का कारण केवल मैं स्वयं हूँ। मैं स्वयं अपना सबसे बड़ा दुश्मन हूँ। जब हम अपने शत्रुओं से घृणा करते हैं तो हम उन्हें अपनी भूख, नींद, रक्तचाप, सुख पर हावी नहीं होने देते हैं। हमारे शत्रुओं को यदि यह ज्ञात हो जाए कि वे हमारे व्यवहार से खिन्न है, वे भी हमें तंग करने की कोई योजना बना रहे हैं । हानि पहुँचाने की बराबरी को सुनकर शत्रु प्रसन्नता से नाच उठते हैं । वे सोचते रहते हैं उसका सुख छिन्न-भिन्न हो गया है । हमारी घृणा शत्रु को चोट नहीं पहुँचाती अपितु हमारे जीवन को नरक बना देती है ।
यदि आपको कोई दुःखी बनाने का प्रयत्न करता है तो आप उसे दुःखी नहीं कीजिए। उसकी उपेक्षा कीजिए, प्रसन्न रहिए पर जैसे के साथ तैसा करने का प्रयास मत कीजिए। जब आप जैसे के साथ तैसा करते हैं तो अपने शत्रु को दुःखी करने की अपेक्षा स्वयं दुःख के सागर में गोते लगाते हैं । इससे आप तनावपूर्ण स्थिति में जीएँगे और जब आपकी ईर्ष्या पुरानी हो जाएगी तो आप उसे जीत नहीं पाओगे अनेक रोगों के शिकार हो जाओगे। अपने शत्रु से भी प्रेम रखो। उसे बार-बार क्षमा कर दो।
अपने हृदय की क्षमा, दया, प्रेम, करुणा आदि से हम स्वयं को अत्यधिक सुन्दर बना सकते हैं । अन्य उपचार से नहीं। घृणा, चिन्ता, थकान हमें नष्ट कर रहे हैं, हमारी आकृति को विकृत कर देते हैं । यदि हम शत्रु से प्यार नहीं कर सकते हैं तो कम से कम स्वयं से तो करें। शत्रुओं को नीचा दिखाने में या समाप्त करने में ऐसा न हो कि तुम स्वयं समाप्त हो जाओ । शत्रुओं को भुलाने का एक सही उपाय है कि किसी महान् कार्य में लग जाएँ, व्यस्त रहें । जो व्यवहार, सोच आपको स्वयं के लिए पसन्द नहीं है, दूसरों के लिए वैसा सोचकर अपना एक पल भी नष्ट मत कीजिए। उसमें चिन्तित नहीं होइए । चिन्ता तो चिता के समान है ।
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