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एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ध्यानी और विनयी में क्या अन्तर है। जो स्वयं के मन की आराधना करता है वह ध्यानी है। जो सबके मन की आराधना करता है, वह विनयी है।
समुद्र जैसा गाम्भीर्य और हिमालय जैसी अचलता सभी में होनी चाहिए। समुद्र में चाहे जितनी भी नदिया अपने जल को डालती है पर समुद्र कभी छलकता नहीं है। अपने अन्दर सभी को समाविष्ट कर लेता है। उसी प्रकार विनयी व्यक्ति कड़वे-मीठे सभी अनुभवों को अपने भीतर समाविष्ट कर लेता है।
जैसे समुद्र में रत्न और कंकर के लिए समान स्थान है वैसे ही विनयी व्यक्ति के मन में सज्जन, दुर्जन के प्रति समान स्थान होना चाहिए।
__ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, अहंकार आदि ये क्षुद्र वृत्तियाँ हैं इन्हें श्रावक को अपने मन से दूर कर देना चाहिए तभी विनम्रता का गुण आएगा।अहंकार विनाश का कारण है। हनुमान में नम्रता थी इसलिए उनका बल भी अमर बना। सागर के किनारे सभी वानर बैठे हुए थे। लंका में कौन जाए इसकी चर्चा चल रही थी। परन्तु हनुमान एकांत में बैठकर राम-नाम का जाप कर रहे थे। जब हनमान से पूछा गया तो उन्होंने कहा - 'समुद्र को लांघ कर लंका में जाने की मेरी हिम्मत नहीं है, पर राम का आशीर्वाद होगा तो मैं जा सकूँगा।'
हनुमान जब समुद्र को लांघ कर लंका में पहुंचे तो उन्होंने यह नहीं कहा कि अपने बाहुबल से यहाँ आ सका हूँ परन्तु उन्होंने यही कहा कि मैं राम के बल से ही यहाँ आ सका हूँ।
इस प्रकार हनुमान में बल होने पर भी उनकी निरभिमानी वृत्ति से ही उनका बल अजर-अमर बन सका है। सभी में इसी प्रकार की निरभिमानिता होनी चाहिए।अहंकार की क्षुद्र वृत्ति का हृदय में स्पर्श नहीं होने देना चाहिए।
विनयी व्यक्ति में अहंकार की क्षुद्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार की वृत्तियों के समाप्त होने पर ही मानव विनयी होता है। जैसे पैर में कांटा लग जाए तो एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। वैसे ही जब तक हृदय में क्षुद्रवृत्तियों के कांटे भरे हों तब तक प्रगतिशील जीवन नहीं बनाया जा सकता
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