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वैसा ही व्यवहार होना चाहिए। हम अपनी हर बात दूसरों से मनवाये यह संभव भी नहीं है और उचित भी नहीं है।
एक पुत्र ने अपने पिता से आकर कहा - 'पिताजी अब हमारा परिवार बड़ा हो गया, मेरी भी अपनी इच्छाएँ हैं इसलिए मैं अलग होना चाहता हूँ।' पिता एकदम चौंककर बोले - 'क्या कहा तूने ! मैं मेरे जीते जी किसी को अलग नहीं होने दूंगा।समाज में क्या मुँह दिखाऊँगा।'
पुत्र ने कहा – 'इसमें हर्ज ही क्या है ? जितने बेटे होते हैं उतने चूल्हे तो जलते ही हैं ?आज आप अपने भाइयों के साथ हैं तो क्या हुआ? आपके पूर्वज तो अन्त में अलग हुए ही थे। कोई पहले हो या बाद में इसमें क्या फ़र्क पड़ेगा। आख़िर आपको देर से ही सही पर यह व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।' ।
पिता ने कहा - 'मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। मेरी सात पीढ़ियों की इज्जत तू मिट्टी में मिला रहा है। यह सब सुनने- देखने से पहिले मैं मर जाता तो ठीक था। मैं अलग नहीं करूँगा। यदि उसके बावजूद भी तू अलग होता है तो मुझे पानी पीने का त्याग है।' यह संकल्प देखकर पुत्र पसीज गया, पैरों में गिरकर क्षमा माँगी और अपने स्वच्छंद विचार त्याग दिए। उम्र में बड़ा होने से परिवार में कोई बड़ा नहीं होता जो समय आने पर त्याग का बड़प्पन दिखाया करता है वही अपने व्यवहार से बड़ा बन जाता है।
इस घटना में हुए पिता-पुत्र के व्यवहार एवं संवाद पर हमें चिंतन करना होगा। संयुक्त या एकाकी परिवार की व्यवस्था जीवन-शैली है, अपराध और बोझ नहीं है। किसी को बड़े परिवार में रहने का आनंद आता है, किसी को छोटे परिवार में रहने का। जहाँ परिवार का कोई भी सदस्य समस्या को समझें बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाता है तो समाधान की अपेक्षा और समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। समझदारी एवं समाधान इसी में है कि अपने पूर्वाग्रह का त्याग करके, वास्तविकता का अन्वेषण करें, क्रियाविति करें इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनावें। __किन्तु इस वार्तालाप में उत्तरदायित्व से विमुख होने का संकेत भी है। यदि कर्त्तव्य से घबराकर, सेवा के दायित्व से बचकर निकलने की सोचते हैं तो यह हमारी ग़लत दिशा है, अपराध वृत्ति है, दूषित विचारधारा है। वातावरण को
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