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उसे कुछ न बोलते देख ऋषिवर ने अपना कमंडल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, 'अच्छा, तो चलो तुम ये मेरा कमंडल ही रख लो, इसमें पाँच अशर्फियाँ हैं, इन्हें निकाल लोगे तो इसके अन्दर से फिर से पाँच सोने की अशर्फियाँ ही निकलेंगी। लेकिन एक दिन में एक ही बार ये पाँच अशर्फियाँ निकल सकती है। हाँ एक और बात ध्यान रखना, इस कमंडल की सदा रक्षा करना, अगर एक बार चोरी होकर दूसरे हाथों में चला गया तो फिर से ये चमत्कार नहीं रहेगा ।'
'मैं इसे छाती से लगाकर रखूँगा महाराज !' उतावला सा सुखराम लगभग ऋषि के हाथ से कमंडल छीनकर घर की ओर भागा। यहाँ तक कि उसे अपने गधे का भी ख्याल नहीं रहा। अब सुखराम के तो दिन ही बदल चुके थे । वह रोज़ाना कमंडल से पाँच अशर्फियाँ निकालता और खर्च करता । कम खर्च कर और पैसे बचाकर उसने नया मकान बना लिया। पत्नी के पास नए कपड़े, जेवर हो गए। लेकिन उसका सुख-चैन जाता रहा। वह हर समय कमंडल की रक्षा में ही चिंतित रहता । कभी भी उसे अपने से अलग नहीं होने देता। रात भर जागता रहता, अगर कभी आँख लग भी जाती तो कमंडल-कमंडल कहते हुए जाग
उठता ।
कुछ ही दिनों में मेहनत को सबसे प्रिय मानने वाला सुखराम अब पागलों जैसा हो गया। नींद न आने से परेशान एक दिन वह उठा और नदी किनारे जाकर चुपचाप से वह कमंडल उस नदी में फेंक दिया। कुछ देर तक तो कमंडल नदी में डूबता - उतरता रहा, फिर गहरे जल में डूब गया। इससे सुखराम को बहुत शांति मिली।
वह जंगल की ओर चल दिया । इतने में ही उसे अपने गधे याद आए । उन्हें ढूंढ़कर वह उनसे गले मिला और ख़ूब रोया । प्यार से गधे की पीठ थपथपाई । उसी पेड़ के नीचे उसे अपनी कुल्हाड़ी भी मिल गई। बस, वह तभी से अपने लकड़ी काटने के काम में लग गया।
रात को लकड़ी का गट्ठर आँगन में डालकर खाना खाया और सोया तो गहरी नींद के बाद अगली सुबह ही उसकी आँख खुली। उठते ही उसने अपने हाथों को चूमा। वह जान गया था कि यह हाथ ही उसके अशर्फी देने वाले
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