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________________ जिससे उसे और मुनाफा हो और वे आराम से अपनी जिंदगी बिना सके। जब सुखराम पत्नी से उलाहने सुनता तो और अधिक लकड़ियाँ काटता, जिससे अधिक धन मिल सके। पहले वह शाम होते ही लकड़ियाँ काटकर गधे पर लादकर घर चल देता था। लेकिन अब वह अंध्धेरा घिरने तक लकड़ियाँ काटने में व्यस्त रहता। पहले से आमदनी तो ज़रूर अधिक हो गई थी, फिर भी वह धनी नहीं हो पा रहा था। __ऐसे ही एक सर्दी की अंधेरी, ठिठुरती रात में देर तक लकड़ियाँ काटकर गधे पर लादकर अपने घर की ओर लौट रहा था तो पेड़ के नीचे से किसी की आवाज़ सुनकर एकदम से ठिठका।आँख गड़ाकर देखा तो वहाँ एक ऋषि बैठे थे। लेकिन वे सर्दी से काँप रहे थे। सुखराम को ठहरा देखकर ऋषिवर बोले, 'भाई, बहुत सर्दी है, मुझे आग तापने के लिए कुछ लकड़ियाँ दोगे?' सुखराम ठिठका।साधु महाराज ने लकड़ियाँ माँगी है। अगर नहीं देगा तो कहीं श्राप न दे दें, और अगर दे देता है तो उसका देर तक किया गया श्रम व्यर्थ ही चला जाएगा। वह उलझन में पड़ गया। उसे उलझन में पड़ा देखकर ऋषिवर बोले, 'रहने दो भाई, तुम जाओ, तुम्हें देर हो रही होगी। मैं रात किसी तरह गुजार लूँगा।' यह सुनकर सुखराम लज्जित हो गया। उसने सोचा, 'धन के लालच में वह कितना नीच हो गया है कि थोड़ी-सी लकड़ी साधु को देने में संकोच कर रहा है।' अपने आप से लज्जित होकर सुखराम ने गधे से सारी लकड़ियाँ उतारकर ऋषिवर के आगे डाल दी और आग जलाने लगा। जब आग जल उठी और वातावरण में थोड़ी गर्माहट आने लगी तो वह वहाँ से जाने को तैयार हुआ। जब ऋषि ने कहा, 'भाई, तुम भी कुछ देर के लिए आग ताप लो।' ऋषि के आग्रह पर लकडहारा आग तापने तो बैठ गया, पर उसे घर की चिंता सताने लगी। वह जानता था कि घर जाते ही उसकी पत्नी जब उसे खाली हाथ देखेगी तो दुत्कारेगी। हो सकता है कि वह उसे खाना भी न परोसे। वह चिंता में पड़ा हुआ था और ऋषिवर उसे देख-देखकर मुस्करा रहे थे। क्यों वत्स, दुःख हो रहा है, मगर इन लकड़ियों के बदले में मैं तुम्हें एक सोने की अशर्फी दूं तो तुम्हारा काम चल जाएगा।' सोने की अशर्फी मिल सकती है, यह सोचकर लकड़हारा तो आश्चर्य में पड़ गया और साधु की ओर देखने लगा। उसने तो अपने जीवन में सोने की अशर्फी देखी तक नहीं थी। | 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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