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से, गुणों से, संस्कारों से होता है।
वस्त्रों का निर्माण हुआ था तन ढकने के लिए, पर आज फैशन की यह हालत हो गई है कि स्त्रियों के, लकड़ियों के वस्त्र सिकुडते जा रहे हैं, तन खुलता जा रहा है। टी.वी. की बढ़ती संस्कृति विदेशों से नये-नये फैशन का आयात कर रही है। चाहे इस फैशन के कारण शुद्ध धर्म समाप्त हो जाए। शरीर महारोग का घर बन रहा है। मनुष्य क्षणिक वैषयिक सुखों की चकाचौंध में शाश्वत सुख को विस्मृत कर रहा है। वह फैशन के माध्यम से अपने अहंकार की प्रतिष्ठा की भूख को शान्त कर रहा है।
शादी-विवाह, बच्चों के जन्मोत्सव, गृह-प्रवेश आदि सभी स्थलों पर यहाँ तक कि तपश्चर्या, मन्दिर, उपाश्रय आदि स्थलों पर भी फैशन परेड होने लगी है। प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। रोशनी की जगमग, बिजली की चकाचौंध, फिल्मी नाच-गानों की भरमार औरों के साथ-साथ स्वयं की शांति को भंग करती है।
हमारे साधर्मी भाई, पड़ौसी यहाँ तक कि रिश्तेदार परिवार के ही सदस्य ग़रीबी से पीड़ित हैं, भूख से त्रस्त हैं, तन ढकने को वस्त्र नहीं है, सिर छिपाने को छप्पर नहीं है, किन्तु हम फैशन परस्त बनकर आलीशान विशाल वातानुकूलित बंगलों में रहते हैं, शराब उड़ाते हैं, प्रदर्शन, दिखावे में फिजूल खर्च करके अपने अहं का पोषण करते हैं।
हमें दोनों महारोगों से अविलम्ब छुटकारा पाना चाहिए। व्यसन जहाँ मनुष्य को काले नाग की तरह डसता है वहाँ फैशन मनुष्य की स्वाभाविकता पर राक्षस की तरह आक्रमण करती है। इन दोनों से मनुष्य की सात्विकता समाप्त हो रही है। यदि आत्मोन्नति करनी है तो दोनों से अविलम्ब मुक्ति पानी होगी। तभी मनुष्य मोक्षपद के सोपान की ओर अग्रसर हो सकेगा। अन्यथा ये पग-पग पर अवरोध उत्पन्न करेंगे। ___आज मनुष्य को सूक्ष्म दृष्टि से यह देखने की आवश्यकता है कि उसकी जीवन नौका ख़तरनाक मोड़ की ओर अग्रसर तो नहीं हो रही है। यदि उस ओर बढ़ रही हो तो तत्काल ब्रेक लगना चाहिए तथा उसे सही दिशा की ओर अग्रसर करना चाहिए।
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