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धीरे-धीरे आदमी को जानता है आदमी। जब भारतीय सभ्यता पूर्णरूप से उन्नत थी। तब हमारी शिक्षा प्रणाली पूर्णरूपेण उन्नत थी। विद्यार्थी प्रकृति की रमणीय स्थली में, आश्रमों में तक्षशिला, नालन्दा जैसे शिक्षा केन्द्रों पर श्रम पूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए शिक्षा के मर्म और संस्कार को जीवन में उतारते थे। उनमें शालीनता, ज्ञान प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा, अनुशासन, गुरुओं के प्रति सम्मान का भाव, देश-प्रेम जैसे आदर्श भाव थे। हमें देखना है कि हमारा विकास सद्प्रवृत्तियों की ओर है या दुष्प्रवृत्तियों की ओर।
एक देश के प्रमुख अस्पताल में मरीजों को मुख्य डॉक्टर के आने का इंतजार था। नर्स, कंपाउंडर आदि बैंचों पर शांति से बैठे थे, लेकिन लंबे कद का एक आदमी लंबा चौगा पहने, चहलकदमी करता हुआ प्रत्येक स्थान और वस्तु को गहराई से निरीक्षण कर रहा था। तभी अपनी ओर आते बड़े डॉक्टर को देखकर वह व्यक्ति ठिठका। डॉक्टर ने पूछा, 'ए मिस्टर, कौन हो तुम? यहाँ क्या कर रहे हो? ' वह बोला, 'डॉक्टर, मेरे पिता बहुत बीमार हैं।' इस पर डॉक्टर बोला, 'बीमार हैं तो उन्हें यहाँ भर्ती कराओ।' वे बहुत कमज़ोर हैं। उन्हें यहाँ लाना संभव नहीं है। आप चलिए डॉक्टर, 'उस व्यक्ति ने आदरपूर्वक कहा।' लेकिन डॉक्टर ने उसे झिड़क दिया, 'क्या बेहूदगी है ? मैं तुम्हारे घर कैसे जा सकता हूँ?' 'भले ही रोगी मर जाए, फिर भी आप नहीं जा सकते?' वह व्यक्ति बोला। डॉक्टर ने उसे डांटते हुए कहा 'ज़्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें मालूम नहीं कि तुम किससे बात कर रहे हो। चीफ सिविल सर्जन से इस तरह की बात की जाती है? ' यह सुनकर वह व्यक्ति तिलमिलाते हुए बोला – 'मैंने अभी तक तो बहुत शराफत बरती है। तुम भी नहीं जानते कि तुम किससे बात कर रहे हो।' अब डॉक्टर का पारा चढ़ गया। उसने अस्पताल के वॉर्ड अटेंडेंट को बुलाकर कहा – 'इस पागल को पागलखाने भिजवा दो।' जैसे ही अटेंडेंट आगे बढ़ा, उस लंबे व्यक्ति ने अपना चोगा उतार फेंका। डॉक्टर ने देखा, सामने कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि ख़ुद राष्ट्रपति खड़े थे। अब तो डॉक्टर भी सकपका गया। देश के राष्ट्रपति ने आदेश दिया - 'डॉक्टर, अब तुम्हारे लिए इस देश में कोई जगह नहीं है। मैं एक अस्पताल का नहीं, पूरे देश का अनुशासित सेनापति और कर्तव्यनिष्ठ
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