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गहराई से चिंतन करें तो पाएँगे कि भारत की आजादी, अस्मिता, शिक्षा का महान् गौरव, जीवन के महान् सूत्र शनैः शनैः हमारे हाथ से छिटक गये हैं। ___ जीवन का अपना ध्येय होता है, लक्ष्य होता है। जिस शिक्षा में जीवन जीने की कोई शैली नहीं होती, कोई महान लक्ष्य नहीं होता, वह शिक्षा व्यर्थ है क्योंकि मनुष्य में जो शारीरिक, मानसिक, आत्मिक शक्तियाँ विद्यमान है, वे शिक्षा के द्वारा ही विकसित होकर जीवन का सुन्दर निर्माण कर पाती है। वास्तव में शिक्षा मानव जीवन को सौन्दर्य प्रदान करती है।
मानव आत्मा के लिए शिक्षा वैसे ही है जैसे पाषाण खंड के लिए शिल्पकला। शिल्पी पाषाण को तराशकर उसमें प्राण फूंक देता है तथा उसके सौंदर्य में अनेक गुना वृद्धि कर देता है। उसी प्रकार सशिक्षा पाशविक वृत्तियों को दूर कर आत्मा के दिव्य स्वरूप का दिग्दर्शन कराती है। स्वयं के स्वार्थ के पोषण में, दूसरों के शोषण में और कुरीतियों, विकृतियों व अंधविश्वासों को पालने में जो लग जाता है, उसकी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है। मनुष्य जीवन एवं शिक्षा की सार्थकता इसमें नहीं है कि मैं सब कुछ प्राप्त करूँ, मैं ही खाऊँ, मैं ही ओढूँ, मैं ही पहनूँ। हमारी शिक्षा में 'ॐ सह नाववतु' की पुनीत एवं संगच्छध्वं की अर्थात् हम सब साथ-साथ हैं, हम सब प्राप्त करें, खाएँ, चलें
और सभी आगे बढ़े जैसी ऐक्य भावना होनी चाहिए। वस्तुतः आज विश्व में इसी प्रकार की मंगल भावना की आवश्यकता है, जो 'जीओ और जीने दो' के रूप में अस्तित्व युक्त है। संसार की सम्पूर्ण कामनाएँ ऊँचाइयों को तभी प्राप्त करती है जब शोषण की अपेक्षा अच्छाइयों के पोषण, कुरीतियों के निर्मूलन, उन्नति के सोपान पर अग्रसर होने का भाव हो।
ख़ुद जीओ सब को जीने दो, यही मंत्र अपनाना है।
एक बार एक इंजन पटरियों पर अंधाधुंध धुंआ छोड़ता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। उसके ड्राइवर से पूछा गया कि यह इतना धुंआ क्यों छोड़ रहा है ? ड्राइवर ने तीव्र आवाज़ में प्रत्युत्तर दिया- जीवन की प्रगति एवं उसके परिष्कार के लिए विकारों का बहिष्कार परमावश्यक है। यदि हमें अपने विकारों का बहिष्कार करना है तो उसके लिए सकारात्मक सोच के साथ सक्रिय होना होगा। वरना सरोवर में जमी काई की भाँति हमारी हालत हो जाएगी। सरोवर का पानी
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