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________________ हैं। जबकि माँ अपने शिशु में पूरी जान भर देती है । वह उसे महसूस भी करता है । नासमझ शिशु सबकी गोद में जाकर रोता है किन्तु वही अपनी माँ की गोद के सुखद आश्रय को प्राप्त करके, कर कमलों के स्पर्श से सुरक्षित-सा महसूस कर चुप हो जाता है। जो सुखानुभूति माँ को अपने बच्चे को गोद में लेकर, जन्म देते हुए, पालन-पोषण करते हुए होती है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है । हम माँ की महत्ता को समझने का प्रयत्न करें। हमारे भौतिक प्रेम में आंशिक ही सही पर वासना होती है, स्वार्थ होता है, आकांक्षा होती है किन्तु माँ के प्रेम में न स्वार्थ है, न वासना, न ही मांग है, न ही आकांक्षा बस उसमें तो निःस्वार्थ प्रेम है, मूक वात्सल्य भाव है, अमृत तत्व है । इस अकथनीय ममत्व, प्यार, वात्सल्य त्याग को शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता है । 1 " कौरव और पाण्डवों के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों के पक्ष में थे । उनकी यह दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार सुनकर मैं तुरन्त शस्त्रों का त्याग कर दूँगा । द्रोणाचार्य के मनोबल तो तोड़ने के लिए एक बार युधिष्ठिर ने कहा 'अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा ।' युधिष्ठिर ने 'अश्वत्थामा हत:' शब्द जोर से कहा और 'नरो वा कुंजरो वा' शब्द धीरे से कहा । अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार सुनकर द्रोणाचार्य ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शस्त्र छोड़ दिए । अश्वत्थामा को जब यह ज्ञात हुआ तो वह क्रोध से आग बबूला हुआ और उसी रात्रि में पाण्डवों की हत्या करने का दृढ़ संकल्प किया । युद्ध विराम की घोषणा के पश्चात् अश्वत्थामा ने युद्धनीति का उल्लंघन किया तथा पाण्डवों के शिविर में पहुँचा। वहाँ पाण्डवों के पाँच पुत्र थे। उसने पाण्डवों के भ्रम में उन पाँचों पुत्रों का वध कर दिया। अपने पाँचों पुत्रों की अकाल मृत्यु से द्रौपदी रोने लगी। भीम ने द्रौपदी को वचन दिया कि वह अपने पुत्र के हत्यारे को कल ही पकड़ कर ला देगा । दूसरे दिन भीम अश्वत्थामा को घसीटकर द्रौपदी के समक्ष लाता है और उसे मौत के घाट उतारने की बात कहता है । उस समय पुत्रों की विरह वेदना से व्यथित द्रौपदी कहती है कि इसने मुझे पुत्र विहीन कर दिया है। पुत्र का विरह क्या होता है इसे मैं भली-भाँति समझ चुकी हूँ। मैंने साक्षात् अनुभव किया है और मैं इसे भी मारकर अपनी तरह, अपनी गुरु- पत्नी को पुत्र - हीन नहीं बनाना 116 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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