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________________ वास्तव में संसार में माँ के प्यार की कोई सीमा नहीं है। माँ का प्यार अनोखा प्यार है। सबके प्यार के समक्ष यदि हम मातृ प्रेम, माँ के प्यार को, ममत्वको, वात्सल्य-भाव को देखें तो वह सबसे यशस्वी धरातल पर स्थित है। हम स्वर्ग की कल्पना करते हैं, उसको प्राप्त करने की, उसमें पहुँचने की कल्पना करते हैं पर माँ के प्रेम को स्वर्गमय बनाने की, उसको अविरल रूप से प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते।माँ के प्रेम और उसकी निर्मल ममता में ही जीवन का स्वर्ग है। क्या माँ के प्यार की तुलना किसी से की जा सकती है, जिसने इस सत्य को समझा है उनके लिए माँ ही ईश्वर है और धरती का पहला तीरथ है। आज का युवा माँ-बाप की उपेक्षा भले ही कर रहा हो, पर याद रखें उपेक्षा करने वाले कभी भी जीवन में उत्थान के स्वर्णिम शिखर तक नहीं पहुँच सकते हैं क्योंकि माँ-बाप की दुआएँ ही उन्नति की दौलत प्राप्ति में नींव के पत्थर का काम किया करती है और इतिहास की अमिट छाप बन जाती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कई पुत्र मातृभक्त हुए जिन्होंने माँ के प्रेम के समक्ष सभी को तिलांजलि दी। कहा भी गया है कि 'जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।' ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने माँ की आज्ञा को शिरोधार्य करके अपने जीवन में महान् पद से भी इस्तीफा दे दिया। आशुतोष मुखर्जी बंगाल के सपूत, निष्ठा संपन्न जीवन के धनी थे। उन्होंने माँ के हृदय को समझ लिया था। यह जान लिया था कि माँ से बढ़कर कोई नहीं है। माँ के सम्मान को समझकर उन्होंने अपने जीवन में माँ को ही ईश्वर तुल्य स्थान दिया। उस समय भारत आजाद नहीं हुआ था। भारत के तत्कालीन वायसराय ने हाइकोर्ट के न्यायाधीश, बंगाल यूनिवर्सिटी के उपकुलपति श्री आशुतोष मुखर्जी को काउसिंल का मेम्बर बनाया। हालांकि तब काउसिंल के मेम्बर केवल विदेशी होते थे पर आशुतोष की योग्यता के आधार पर उनका चयन किया गया। इतने बड़े पदों पर आसीन होने के बावजूद भी माँ की शिक्षा के अनुरूप वे हाथ से खाना बनाते, थर्ड क्लास में सफर करते, सभी की भावनाओं का सम्मान करते हुए माँ को सर्वोपरि स्थान देते। उनकी विशिष्ट प्रज्ञा एवं योग्यता को देख वायसराय ने उन्हें विदेश भेजने का निश्चय किया। उन्होंने कहा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में जाकर आपको 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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