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________________ इनका वैभव, सम्पत्ति बेकार है। इस प्रकार का जीवन तो पशुओं से भी निम्न स्तर का है। __माँ-बाप की सेवा करना तो सन्तान का धर्म है। लेकिन अपना घर बसते ही सन्तान माँ-बाप को भूल जाती है। जो अपने माँ-बाप की सेवा नहीं करते उनसे कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि उनके जीवन में त्याग का, सेवा का, समर्पण का भाव है। आज युवाओं में सेवाभाव, दानवृति बढ़ी है, पर मैं उनसे इतना निवेदन अवश्य करूगी कि संस्थाओं, क्लबों के सदस्य बनकर विद्यालयों में, अस्पतालों में साधन हीन लोगों की सेवा करनी अच्छी बात है, पर आपकी सेवा के प्रथम अधिकारी आपके माँ-बाप हैं । जो अपने माँ-बाप की दुआएँ नहीं ले पाया मैं नहीं समझती कि ग़रीबों की दुआएँ उनका भला करेगी। सेवा की शुरुआत बाहर से नहीं अपने घर से शुरू करनी चाहिए। तभी आपकी सेवा सार्थक कहलाएगी। सेवा मानवीय धर्म है। उसका त्याग कैसे किया जा सकता है ? यदि हम मानवीय धर्म सेवा का त्याग कर देते हैं तथा माला जपना, शास्त्र पढ़ना आदि करते हैं तो ये सब अधूरे हैं । मात्र बहिरंग है । अन्तरंग से यह शुद्ध भावना हो कि 'प्राणी मात्र का कल्याण हो' 'सुखी रहे सब जीव जगत के इस तरह का दया भाव रखने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। जब से हम सेवा-भाव को भूल गए हैं । तब से दु:खी हैं, कष्ट में हैं, एकांगी बन गए हैं। यदि हमें आनन्दपूर्वक जीवन जीना है तो सेवा भाव आवश्यक है। सेवा भी अपन अपनी शक्ति एवं भक्ति से कर सकते हैं। यदि आपके पास धन हो तो धन से, तन से अथवा मन से भी सेवा कर सकते हैं। मनुष्य सेवा-भाव से सुखमय जीवन व्यतीत कर सकता है। सेवा करते समय छोटे बड़े का विचार मत कीजिए। यह मत सोचिए कि यह छोटा व्यक्ति है मैं इसकी सेवा नहीं कर सकता हूँ। सेवा में कोई छोटा बड़ा नहीं होता है। हमें सेवा सदा नि:स्वार्थ भाव से करनी चाहिए। जो इसे धर्म नहीं मानते वे अज्ञान के अंधकार में भटकते रहते हैं। सेवा करने वाले कभी मैले या अपवित्र नहीं होते। सेवा करने वालों में अद्भुत शक्ति और क्रियाशीलता होती है। सेवा करने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होठों की तरह पावन व पवित्र ही नहीं होते वरन् संत-चरणों की तरह प्रणम्य भी बन जाते हैं। | 107 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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