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________________ तुम स्वर्ग में ही पहुंच गए तो क्या वहाँ इतनी कमी है कि तनिक से आटे के लिए तुम्हें इतनी मोह-माया करनी पड़ती है जबकि स्वर्ग में अनन्त वैभव हैं । वहाँ तो वैभव का साम्राज्य बिखरा पड़ा है, फिर क्यों इस पिंडदान के लिए संसार का जाल फैलाते हो! ___ क्या तुम्हारे स्वर्ग में इतना अभाव है कि वहाँ का संचालन धरती के आधार पर हो कि यहाँ गेहूँ होगा तो वहाँ के लोगों का पेट भरेगा। अगर ऐसा ही है तो हम धरती पर ही जन्म लेते रहें और कोई धर्म-कर्म स्वर्ग के नाम पर न करें। ऐसे स्वर्ग में हम न जाना चाहेंगे जिसको धरती के लिए मोहताज होना पड़े। इससे तो यह धरती ही बेहतर है जहाँ हम अपनी मेहनत की कमाई खा सकते हैं, किसी दूसरे पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। और फिर क्या गारंटी कि तुम स्वर्ग ही पहुँचोगे ! ___ एक बार ऐसा हुआ कि गुरु नानक ने देखा कि पंडित यजमान को खूब मूर्ख बना रहे हैं। गंगा किनारे तर्पण चल रहा था और लालची पंडित कहे जा रहा था। गुरु नानक देख रहे थे यहाँ-वहाँ यही सिलसिला चल रहा था। उन्होंने भी सोचा क्या मालूम पहुँच ही जाए तो क्यों न गंगा-जल पंजाब पहुँचा दूं। उन्होंने गंगा से लोटा भर-भर पानी निकालना शुरू किया और गंगा की तरफ पीठ कर जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगे, हे गंगा माँ, मैं तुम्हें धरती पर डाल रहा हूँ और यह सारा पानी मेरे पंजाब तक पहुँच जाए।' __पंडितों ने उन्हें ऐसा करते देखकर कहा, 'यह क्या कर रहे हो, ऐसे पानी डालने से क्या गंगा पंजाब तक पहुँचेगी?' नानक ने कहा, 'जब तुम्हारा पिंड उस स्वर्ग तक पहुँच सकता है तो मेरा पानी इसी धरती पर पंजाब के खेतों तक क्यों नहीं पहँच सकता। जब पानी नहीं पहुँच सकता तो तुम्हारा यह पिंड भी कहीं नहीं पहुँचेगा। अच्छा होगा यह दान यहाँ बैठे हुए भिखारियों को दे दो। उनका पेट भरेगा और वे जो दुआएँ देंगे उनसे ज़रूर तुम्हारे पिता की आत्मा को शांति मिल जाएगी।' मनुष्य के भीतर जब आत्म-ज्ञान की लौ जग जाती है, तब कितना ही गहन अंधकार क्यों न हो उस अंधकार को तोड़ा जा सकता है। माना, पूरे संसार के अंधकार को नहीं तोड़ा जा सकता, पर जहाँ-जहाँ यह दीप पहँचेगा, उसके आसपास का अंधकार तो दूर हटेगा ही। जहाँ-जहाँ आत्म-ज्ञान की रश्मियाँ पहुँचेंगी वहाँ तो प्रकाश होगा ही। तब हर पिता को चोट लगती है, हर माँ को चोट लगती है। जब वे देखते हैं कि उनका युवा-पुत्र महामार्ग पर आगे बढ़ रहा है। कहाँ हम बूढे और कहाँ वह युवा! हम जीवन का उपभोग करके भी जीवन के सार को उपलब्ध न कर सके और वह जीवन के धरातल पर कदम रखे, उससे पहले ही परम पथ पर कदम बढ़ाने के लिए कृत संकल्प और प्रतिबद्ध हो चुका है। पर हमारी चेतना कहाँ जाग्रत होती है। क्योंकि जैसे-जैसे कीचड़ में धंसते हैं कीचड़ सुहावना, सुखद और रसपूर्ण 941 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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