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लेकिन कुछ भी न पाया।मैं एक बात कहना चाहूँगा कि एक बेटे को उसके विवाह के पूर्व अपने जीवन के अनुभव बता दो। तुमने जो सुख या दुख पाया, जो पीड़ा या रस पाया है, उसे पूरी ईमानदारी के साथ बिना लाग-लपेट के अपने बेटे को सुना दो। फिर बेटे पर छोड़ दो कि उसे अपना भविष्य कैसा बनाना है।
__ पर पिता अपना अंकुश रखना चाहता है बेटा कहीं हाथ से निकल न जाए इसलिए उस पर अंकुश बनाए रखते हैं। बेटा संगीतकार होना चाहता है, लेकिन पिता के अंकुश के कारण इंजीनियर बन जाता है। जो इंजीनियर बन गया उसकी इच्छा डॉक्टर होने की थी। जो डॉक्टर बन गया उसकी इच्छा चित्रकार होने की थी। आप जानते हैं हिटलर चित्रकार बनना चाहता था लेकिन न बन सका। परिणामतः जो ऊर्जा सृजन कर सकती थी, निर्माण कर सकती थी, वह विध्वंस करने लगी। चित्र बना न पाया तो चित्रों को नष्ट करने में लगा रहा। हर पिता अपने बेटे को एकपक्षीय ज्ञान देता है, जीवन का पूरा ज्ञान नहीं देता। पिता होने के नाते यह उसका फर्ज है कि जीवन को जैसा जीया, जैसा जाना, एक बार पूरी प्रामाणिकता के साथ बेटे से कह दे।
मैंने अपने जीवन में बहुतेरी पुस्तकों को, शास्त्रों को पढ़ा लेकिन जब से जीवन को जाना सारे पोथे व्यर्थ-से प्रतीत होने लगे। जीवन ही एक खुली किताब है, पूरा जगत ही एक शास्त्र है सिर्फ पढ़ने वाली आँखें चाहिए। वस्तुतः संसार से बढ़कर जीवन का अन्य कोई शास्त्र है ही नहीं, सभी शास्त्र संसार में संसार के द्वारा ही निर्मित किये जाते हैं। मेरे देखे तो संसार ही सबसे महान व विस्तृत शास्त्र है। जीवन और जगत के प्रति सजगता और जागरूकता चाहिए। मेरे लिए तो जीवन और जगत के प्रति इसी सजगता और जागरूकता का नाम अध्यात्म है। जरूरत आँख को खोलने की, आँख को खोजने की है।
पिता समझाएगा कि तुने संन्यास ले लिया तो मेरा पिंडदान कौन करेगा, मेरी अस्थियाँ गंगा में कौन विसर्जित करेगा। बेटे के बिना सद्गति न होगी। अगर आप ऐसा मानते हो, तो फिर उन तीर्थंकरों का क्या होगा जिन्होंने विवाह ही न किया या जिनके बेटे न हुए। लेकिन उन्हें गति की चिंता ही न थी। वे तो सद्गति भी नहीं चाहते। वे तो गति से ही मुक्त हो जाना चाहते; क्या दुर्गति और क्या सद्गति । जो अपने जीवन में ही गति से मुक्त होने का प्रयास नहीं कर पाते, वे ही दुर्गति और सद्गति के बारे में चिंतनशील रहते हैं। और तुम क्या सोचते हो कि पिंडदान देने से पिंड तुम तक पहुँच जाएगा? तुम्हें क्या पता कि तुम स्वर्ग में जाओगे या नरक में, तब पिंड कहाँ पहुँचेगा? पर हमारे बेटे-हमें सांत्वना मिलती है, आश्वासन मिलता है कि हम चाहे नरक में जाएँ, बेटा लिखेगा 'स्वर्गीय'। इसी सांत्वना में वह जीवन व्यतीत करता है और मनुष्य-योनि तथा संसार का विस्तार करता है। चलो मान लिया है कि
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