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________________ दुनिया जाए, जाने दो उस मार्ग पर। मुझे कोई ऐतराज नहीं, पर इतना ज़रूर करो कि कुएँ में गिरते समय आँखें खुली रखना, ताकि मरते समय, अंधकूप में गिरते समय यह पछतावा न रहे कि मै कहाँ आकर गिर गया। जिस दिन यह बोध हो गया कि किसी कुएँ में गिर गया हूँ, अगर भीतर के नाद का नगाड़ा सुनाई दे जाए तो साहस बटोर लेना, हिम्मत जुटा लेना, बाहर आ ही जाओगे, किनारा मिल ही जाएगा । भीतर की रोशनी उजागर हो ही जाएगी। बद्धरेक बाहर निकला, हम भी पार हो सकते हैं, पर इसके लिए यह जानना होगा कि हम भी दलदल में हैं । जब तक इसका बोध नहीं होगा, तब तक धर्म व अध्यात्म के सारे द्वार आपके लिए बन्द हैं । तब आपके जीवन में अध्यात्म की कोई दस्तक नहीं हो पाएगी, चेतना का चिराग जल नहीं पाएगा। ऐसा नहीं है कि आदमी को ज्ञान नहीं है। ज्ञान तो है, लेकिन मूर्च्छा इतनी गहरी है कि आदमी के लिए ज्ञान केवल ऊपर-ऊपर रह जाता है, उतना गहराई तक नहीं पहुँच पाता, जितनी गहराई तक हमारी मूर्च्छा, तन्द्रा है । जब तक इतनी गहराई तक हमारा आत्म-बोध नहीं पहुँच पाता, तब तक भले ही आदमी संन्यास ले ले और गुफा में रह ले, उसे संसार की याद आयेगी। वह मन की खटपट में उलझा रहेगा । अध्यात्म के मायने हैं आत्मा का सामीप्य । पर आत्मा की करीबी तो तब है, जब उस मन के प्रति तटस्थ और वीतराग हो जाओ, जो दिन-रात चौराहे पर वाहनों की तरह दौड़ रहा है। सपनों के दीप जलाने की चेष्टा करता रहता है। बीते का चिन्तन करता रहता है । यह सब भटकाव है । यह भटकाव ही मनुष्य की बद्धरेकता है । भव भ्रमण जारी है। मन-ही-मन भ्रमण हो रहा है। हम जन्म-जन्म से भटक रहे हैं- बद्धरेकताओं से जकड़े रहे हैं। अपने मन को देखो तो लगेगा कि चौरासी लाख जीव-योनियाँ हमारे मन की योनि के सामने निरी कुबड़ी है । मन वह योनि है, जो प्रतिपल एक-दूसरे के विरुद्ध विकल्पों को जन्म देता रहता है । किन अंडों में से ये विचार फूटते हैं, अज्ञात है । मन की स्थितियों को समझो, उनसे भागो मत, उन्हें स्वीकारो । उन्हें भोगो मत, उनके प्रति तटस्थ हो जाओ । मन के कहे चलोगे, तो ही कर्म- धारा में उलझे रहोगे । कर्म के काँटे उगते रहेंगे, उलझाते रहेंगे। तुम उन्हें काट तो पाओगे नहीं और दृढ़ करते जाओगे । कर्म के काँटे जन्म-जन्म से इतने सिंचित होते रहे हैं कि अब वे लोहे की कीलें हो चुकी हैं। जीवन लोहे की कीलों पर, कांटों की सेज पर चलना-बैठनासोना है । सम्भावना प्रबल है कि ये कीलें भाले और फरसे बन जाए। अच्छा होगा हम अपने जन्म-जन्मान्तर का इतिहास बदलें । जगो, जगना ही, सजगता ही मूल मंत्र है । Jain Education International For Personal & Private Use Only 173 www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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