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वे सारे मार्ग अपनाओ जिससे हमारे विकार समाप्त हों और चित्त को शान्ति उपलब्ध हो।
मेरा अनुभव यही है कि भीतर होने का अभ्यास ध्यान से ही होता है। ध्यान बहुत ऊँची या टेढ़ी वस्तु नहीं है। ध्यान अत्यन्त सरल है। तपस्या करो तो भूखे रहना होता है, दान करो तो धन खर्चना पड़ता है, लेकिन ध्यान में यह सब कुछ नहीं करना पड़ता है। ध्यान तो सिर्फ़ भीतर होने का अभ्यास है, भीतर का प्रमोद भाव है, भीतर की चेतना के प्रति सतर्कता और सजगता है। यह अन्तर्यात्रा है। बाहर से भीतर की ओर मुड़ना है। बिना भीतर मुड़े, बिना अन्तर्यात्रा किए, बिना भीतर की बैठक में दस्तक दिए आज तक कौन उपलब्ध हो पाया है ! चौदह वर्ष तक महावीर जंगलों में क्या करते रहे? क्या कपड़े बुनते रहे या पात्रों को रंगते रहे? नहीं, चौदह वर्षों तक भीतर उतरने का प्रयास करते रहे । अन्तर्मन को जीतते रहे। भीतर को जीतकर ही वे उपलब्ध हो सके। धर्म आखिर मनुष्य को उसकी अन्तरात्मा ही देना चाहता है। और अन्तरात्मा हमारे भीतर ही है। तभी तो कबीर कहते हैं- कस्तूरी कुण्डल बसे- नाभि में ही कस्तूरी रहती है। हमारे कुण्डल में हमारी सुरभि, हमारा प्रकाश, हमारा स्वाद रहता है। इसलिए ध्यान ही सबसे सुगम मार्ग है जिसमें न कहीं जाना है, न झुकना है, न तपस्या करके स्वयं को सुखाना है।
जहाँ बैठे हो वहीं अपने भीतर होने में, साक्षीत्व में, सजगता में, तथाता में होने का अभ्यास ही ध्यान है। जहाँ बैठकर आँखें बन्द कीं, वहीं अन्तर्भाव में प्रवेश हो गया, ध्यान में चले गए। जीवन में जो भी चमत्कार होगा वह ध्यान से ही घटित होगा। मुझे इन वर्षों में ध्यान से इतना उपलब्ध हुआ, जितना पिछले पन्द्रह वर्षों में क्रिया-काण्डों से उपलब्ध न कर पाया। अब तो लगता है कि जो भी होता है ध्यानमय होता है। जीवन ध्यानमय हो जाए, तो आत्मानुभव सहज है। जहाँ हो जिस स्थिति में हो, जिस वेश में हो, जिस नाम में हो वह स्थान मंदिर होगा। तब मंदिर किसी स्थान विशेष पर न होंगे, तब तीर्थ किसी नदिया किनारे पर न होंगे वरन स्वयं के भीतर ही काबा-कर्बला, कैलास-काशी होंगे। केवल भीतर उतरना है, स्वयं को आत्मसात् करना है - यही धर्म है, ध्यान है। ध्यान ही सभी धर्मों का भविष्य है।
.प्रभावना क्या है? क्या माइक पर अपना नाम घोषित करवाकर कुछ वस्तुएँ बाँट देना प्रभावना हैं?
इस सदी में कार्ल गुस्ताव जुंग ने सिनक्रॉनिसिटी की जो थ्योरी दी, पच्चीस सौ
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