SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान जुड़ा हुआ न हो। __ ध्यान को हम भुला बैठे हैं, इसीलिए तप अब काया-क्लेश हो गए हैं। कमठ भी तो तप कर रहा था। एक-एक माह का उपवास कर रहा था। पंचाग्नि तप रहा था। फिर क्या कारण था कि पार्श्वकुमार ने उसके तप का विरोध किया। आज आप सर्दियों में तप करते हैं, तो अंगीठियाँ जलाते हैं और गर्मी में तप करते हैं, तो एयरकंडीशनर चलाते हैं; फ़र्क कुछ नहीं है वही पंचाग्नि तप है। आज पार्श्वकुमार होते, तो वे पुनः इस तप का विरोध करते। हमारे धर्मों ने गुप्त-दान की तो बात कही पर गुप्त-तप की चर्चा क्यों नहीं की। शास्त्र कहते हैं नामोल्लेख के साथ किया गया दान कीर्ति-दान होता है, इसलिए निष्फल गया। मैं पूछूगा तपस्या करके जिसने समाज के बीच फूलमालाएँ पहनी, रास्तों पर जलसे किए, जुलूस निकाले उनका तप कीर्ति-तप क्यों न हुआ? और कीर्ति-तप होने के कारण वह निष्फल क्यों न चला गया? ध्यान का अभाव हो गया है। ध्यान हमारे जीवन से निकल गया है। कुछ, आत्मभाव को उपलब्ध हुए लोगों ने फिर से ध्यान की लौ, ध्यान की अलख जगाई है और पूरे विश्व में ध्यान की आत्मा प्रसारित हो रही है। ध्यान का आभामण्डल विस्तार ले रहा है। लोग समझ रहे हैं ध्यान और योग का क्या अर्थ, अभिप्राय और महत्व। महावीर ने एक बहुत गहरी गाथा कही है - सीसं जहा शरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य, सव्वस्स साधु धम्मस्स तहा झाणं विधीयते । महावीर ने कहा - जैसे शरीर का मूल सिर है, जैसे पेड़ का मूल उसकी जड़ है, वैसे ही समस्त साधु-धर्म का सार ध्यान है। यदि ध्यान है, तो तप आपको प्रगाढ़ता दे जाएगा। प्रार्थना के साथ ध्यान जुड़ गया, तो प्रार्थना जीवन्त हो जाएगी। पूजा के साथ ध्यान की चेतना है, तो पूजा परमात्मा का प्रसाद हो जाएगा। पूजा, प्रार्थना, तप ये सब ध्यान के साथ हों। यदि तप करते हो तो उसे ध्यान के साथ जोड़ो, जिससे तप केवल उपवास न हो, वह हमारे भीतर के कषाय, कचरे को जलाने में सहायक हो जाए। तप ऐसा हो जो हमारे क्रोध को जला डाले और भीतर क्षमा का स्रोत जगा दे। तभी तप सार्थक है। तुम मासक्षमण करते हो और कभी स्नान करते समय दो बूंद पानी मुँह में चला जाता है तो गुरु के पास प्रायश्चित पूछने जाते हो।लेकिन तप के दौरान जो क्रोध करते हो, झगड़ा करते हो, पति से कहते हो मुझे सोने की चेन बनवाकर नहीं दोगे तो पारणा नहीं करूँगी। मैं पूछूगा इन बातों का प्रायश्चित करने के लिए गुरु के पास कौन जाता है? धर्म को बाह्य मत बनाओ। धर्म को अपनी अन्तरात्मा के साथ जोड़ो क्योंकि धर्म भीतर का अनुष्ठान है। धर्म हमारे जीवन की देहरी पर प्रेम का जलता हुआ चिराग है। 64 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy