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________________ प्रगट कर दो, ताकि हमारा पाप, पाप न रह जाए, लेकिन हमारा मन प्रशंसा चाहता है इसलिए घोषणाएँ करते हुए दान दिया जाता है, पर दूध में पानी चुपके से मिला देते हैं कि किसी को पता न चले। T वास्तव में व्यक्ति के हाथ में शव रह गया है, शिव छूट चुका है। वह प्रतिदिन मंदिर जाता है लेकिन अहंकार नहीं छूटता । अहंकारों की टकराहट होती है और सब टूट जाता है । व्यक्ति आत्मा-परमात्मा की बड़ी ऊँची चर्चाएँ करता है लेकिन ये सिर्फ़ चर्चाएँ ही हैं। उनका जीवन देखो एकदम भौतिकता से लिप्त । ईश्वर में आस्था रखने वाला भी कल की चिन्ता में डूबा है और जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते, स्वयं को अनात्मवादी कहते हैं, वे अहंकार में उलझे हैं । मेरा तो यही कहना है हम स्वयं के बारे में सोचें, मनन करें और आन्तरिक कषायों को समाप्त करने का प्रयास करें। आप पूछते हैं इस परिस्थिति से उबरने हेतु समाज में परिवर्तन कैसे लाया जाए? मेरा कहना यही है कि अगर समाज को बचाना है तो सबसे पहले अन्धविश्वास से बचें। समाज और तुम इन पाले हुए अन्धविश्वासों से स्वयं को अलग करो, बुद्धि का प्रयोग करो । वैज्ञानिक समझ से इनको देखें और असंगत को परे हटाएँ। किसी अन्य ने किया इसीलिए तुम मत करो । अंधों के गतानुगतिक मत बनो । जब तक स्वयं को पूर्णरूपेण परिपक्व श्रावक न बना लो तब तक श्रमण होने का प्रयास मत करो, उसकी योजना भी मत बनाओ। अच्छे श्रावक न हुए तो अच्छे मुनि कैसे हो पाओगे? साधु-मार्ग तो अपना लोगे लेकिन फिर वही इच्छाएँ, एषणाएँ, कामनाएँ उभरेंगी। तब बाह्य आवरण साधु का और मन गृहस्थ ही होगा। जैसे परिवार में सन्तान की कामना होती है वैसे ही संन्यास में शिष्यों की चाह बढ़ जाती है । यहाँ भी एक संसार बसने लगता है और गुणवत्ता खो जाती है । महावीर ने सम्यक्-दृष्टि का सूत्र दिया कि व्यक्ति अपने अन्ध-विश्वासों से बाहर आए और सम्यक्-दर्शन को उपलब्ध हो। मैं चाहता हूँ हम अपने समाज को, अपने धर्म को प्रलोभन से बचाएँ । इस प्रलोभन ने धार्मिक भावना को समाप्त कर दिया है। हम या हमारे बच्चे जब धर्म-स्थल पर, धर्म-सभा में जाएँ तो धर्म - भावना से जाएँ, किसी प्रभावना या प्रसाद के लालचवश न जाएँ। उन्हें समझाएँ कि मंदिर से मिलने वाले नारियल, लड्डू, रुपये-पैसे तुम स्वीकार नहीं करोगे। हमें प्रलोभन नहीं चाहिए। व्यावसायिक बुद्धि से धर्म को अलग करें। अन्यथा धर्म को कोई नहीं बचा सकेगा। संवत्सरी पर प्रतिक्रमण करने पूरी धर्म भावना से जाएँ, किसी लालच से नहीं कि आज तो अलग-अलग प्रकार की प्रभावना मिलेगी। लोगों का मत रहता है कि पर्व का दिन है आज तो प्रभावना कर ही लें। नहीं, कम-से-कम पर्व के दिन तो प्रभावना बिल्कुल ही मत करो । प्रलोभन हमारी नसों में रक्त की तरह प्रवाहित हो 621 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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