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न दीक्षा ग्रहण कर संन्यासी बन जाएँ। लेकिन व्यक्ति अपनी ही मोहभरी रागात्मक जंजीरों से जकड़ा है कि चाहकर भी अलग नहीं हो पाता। व्यामोह की गाँठ इतनी प्रबल है कि परिवार वाले नहीं, हम खुद ही उनसे बँधे रहते हैं। हम ही संसार का निर्माण करते हैं और उससे आबद्ध होते हैं। हमारा निर्माण अवश्य ही परमात्मा ने किया है, लेकिन हम जिस संसार में उलझते हैं, उसके निर्माता हम स्वयं ही हैं। परमात्मा हमें जन्म देता है, जीवन का पुरस्कार देता है लेकिन संसार में उलझने का कार्य परमात्मा ने हमें नहीं सौंपा है। आपके पास हजारों समस्याएँ हैं, लेकिन मेरे पास कोई समस्या नहीं है। कोई मुझसे पूछे कि क्या मेरे मन में विभिन्न प्रकार के प्रश्न उठते हैं, जिनका उत्तर पाने के लिए किसी गुरु की तलाश है, तो मै कहूँगा कि मेरे मन में प्रश्न ही नहीं उठते। मेरी समस्या यह है कि मेरे पास कोई समस्या नहीं है।
__ आप कहें, तो मैं आपसे प्रश्न पूछूगा, लेकिन उसका उत्तर मुझे नहीं चाहिए। वह जवाब भी आप ही के लिए है, आपकी आत्मा को वह उत्तर चाहिए। शांति से रात्रि में मेरा यह प्रश्न सोचिएगा कि मनुष्य अन्ततः रुकता कहाँ है, उसका धैर्य कहाँ अटकता है- यह सोचिएगा। हम सोचते जरूर हैं कि हम बहुत धैर्यवान हैं लेकिन आपके ऊपर छिपकली गिर जाए तो एकदम से चौंक पड़ते हैं, धैर्य न जाने कहाँ विलुप्त हो जाता है। ___ जब हम सामायिक की साधना करते हैं तब इतना असीम धैर्य होना चाहिए कि उस समय बिच्छू भी चढ़ने लगे तो विचलित न हो पाएँ। साँप भी गुजर जाए, तो तुम दौड़ न पाओ। जिनमें धैर्य होता है, उन्हें साँप या बिच्छू नहीं काटते । साँप और बिच्छू अधीर होने वालों को, विचलित हो जाने वालों को ही काटते हैं। एक प्रयोग करेंआप किसी गली से गुजर रहे हैं और कोई कुत्ता भौंकने लगे, आप वहाँ शांत-स्थिर होकर खड़े हो जाइए, कुत्ता चुप हो जाएगा। लेकिन जैसे ही अधीर-विचलित होकर दौड़ने लगे, कुत्ता भी दुगुनी रफ्तार से आपके पीछे दौड़ेगा। भय का भूत पिछलग्गू ही होता है। ___ व्यक्ति स्वयं ही अपने संसार का निर्माण कर उसे समस्याओं और उलझनों से भर लेता है। मेरे प्रश्न पर विचार कीजिएगा कि व्यक्ति रुकता कहाँ है? यह जीवन का गहन-गम्भीर सवाल है। जो उत्तर आए, उन्हें किनारे कर देना क्योंकि ये रटेरटाये उत्तर हैं। तुम्हारे जीवन को बदलकर रख देगा यह प्रश्न, चित्त में रूपान्तरण होगा, हृदय बदलेगा- सतत एक ही प्रश्न-बोध कि आदमी रुकता कहाँ है? संसार का निर्माण कर जंजीरें बाँध लेता है। पाँव में जंजीरें हैं नहीं, पर जंजीरों का बोझ बहुत अधिक है। किसी नौका के लंगर में बँधे नहीं हैं पर दृष्टि-भ्रम है कि मेरे लंगर बंधे हुए हैं। अब नौका कैसे चलेगी? नौका तो चलने को तैयार है, बशर्ते हम ही अपनी
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