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________________ मनुष्य अपने जीवन में जीने का प्रबंध कम और मृत्यु से बचने के उपाय अधिक करता है। यदि जीवन के उपयोग का इन्तज़ाम हो जाए, तो मृत्यु व्यक्ति के लिए जीवन की मृत्यु न रह कर जीवन का आखिरी पड़ाव बन जाती है। मनुष्य जीवन में हर वस्तु से बच सकता है, आँखों में धूल झौंक सकता है, लेकिन मृत्यु से कभी नहीं बच सकता। जीवन है तो मृत्यु भी है। जीवन का पहला और अंतिम सत्य तो मृत्यु ही है। वह निश्चित है। फिर घबराना कैसा! सिर्फ मृत्यु ही होगीन् । जीवन के किसी भी मार्ग से गुजर जाएँ, परिणाम क्या होगा? मृत्यु ही न्! फिर क्यों न निश्चिन्त होकर, निर्भय होकर जीवन जीएँ! ___ महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन अपने परिजनों के मोह से व्याकुल हो, अपना गाण्डीव-धनुष रथ में रख देता है, उस समय श्रीकृष्ण उससे सिर्फ एक ही बात कहते हैं कि पार्थ, अपने हृदय में नपुंसकता को स्थान मत दो।अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग करो। उठो, और युद्ध में रत हो जाओ। आख़िरी परिणाम उनकी और तुम्हारी मृत्यु ही है। तुम मृत्यु से क्यों भयभीत होते हो? यह न सोचो कि कोई मर रहा है, ये तो मारे ही जा चुके हैं। व्यक्ति अपने को चाहे जितना बचाना चाहे लेकिन जीवन की धारा प्रवाहमान है, जो रुकती नहीं है । धारा के रुकने का नाम ही मृत्यु है। जलते हुए दीप को ही हम दीप कहेंगे। बुझा हुआ दीप तो दीप की लाश है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह जीवन का उपभोग/उपयोग करना चाहता है लेकिन मृत्यु से बचकर । जीवन का भोग कर लेने के बाद भी कौन बंधनों से मुक्त हो पाया है, तृष्णा को तृप्त कर निर्ग्रन्थ हो पाया है? तुमने ययाति की कहानी तो सुनी ही होगी, जिसके द्वार पर मृत्यु दस्तक देती है और अपनी कामनाओं से अतृप्त ययाति सौ वर्ष का जीवनदान माँगता है । मृत्यु उसके पुत्र की कीमत पर सौ वर्ष का जीवन देती है। अगले सौ वर्ष व्यतीत होने पर यमदूत पुनः आते हैं, लेकिन ययाति! वह तो सोचता है मैंने तो कुछ भोगा ही नहीं और पुनः सौ वर्ष जीवन माँगता है। उसके पुत्र उससे ज्यादा समझदार हैं। वे पिता की एषणा और मृत्यु का खेल देखते हैं। मृत्यु जो अवश्यम्भावी है फिर भी पिता जीवन की कामना किए चले जाते हैं, अपने पुत्रों की भेंट देते हुए। हजार वर्ष का जीवन जी लिया फिर भी तृष्णाएँ तृप्त न हो सकीं। अन्ततः यमराज स्वयं आए और कहा - बस, अब और नहीं। तुम जिस जाल में उलझे हो, वहाँ कभी तृप्त न हो सकोगे। अपने कितने ही पुत्रों की बलि चढ़ाओ, लेकिन तब भी अपनी तृष्णा को भर न पाओगे। तृष्णा दुष्पूर है। उम्र से तृप्ति नहीं होती, लेकिन जब जीवन-का-बोध उपलब्ध होता है, तो वही व्यक्ति परितृप्त हो जाता है, वही शांत हो जाता है, वही आत्म-मौन को उपलब्ध हो जाता है। अनेक बार मनुष्य के मन में विचार आता है कि गृहस्थी में बहुत झंझट हैं, क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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