________________
और उन्होंने उसे कारागार में बन्द कर दिया।
प्रात:काल जब उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया गया, तो उसने सच-सच सारी आपबीती राजा को बयान कर दी। सम्राट कपिल की सच्चाई, सादगी और निर्भीकता से प्रभावित हुआ। उसने कहा- ब्राह्मण, तुम दो माशा स्वर्ण के लिए निकले थे लेकिन चोर के रूप में यहाँ हाजिर हुए। मैं तुमसे वादा करता हूँ कि तुम जो चाहोगे वह मैं तुम्हें दूंगा। कपिल का मन, उसकी चेतना लोभ से अभिभूत हो उठी। उसने सोचा - जब सम्राट दे रहा है, तो दो माशा सोना क्या माँगना, क्यों न सौ स्वर्णमुद्राएँ ही माँग लूँ। जैसे ही माँगने को उद्यत हुआ, मन में विचार आया, सौ मुद्राओं से क्या होगा। कुछ सुख भोगूंगा उसमें ही ये मुद्राएँ समाप्त हो जाएँगी। क्यों न हजार स्वर्णमुद्राएँ माँग ली जाए और जब देने वाला स्वयं सम्राट है, जिसने कह दिया कि तुम जो माँगोगे वह मिलेगा। लेकिन हजार में भी तृप्ति नहीं होगी। इसके बाद भी नगर में लखपति रहेंगे जिनका मुझ पर अंकुश रहेगा; क्यों न एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ माँग ली जाएँ। मन बहता गया, लोभ बढ़ता गया। दो माशा स्वर्ण लेने आया कपिल, सौ, हजार, लाख, करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की अभिलाषा करने लगा। तब भी सोचता रहा कि नगर सेठ तो फिर भी बड़ा ही रहेगा। अगर नगर श्रेष्ठि का पद भी माँग लूँ तब भी राजा तो मुझसे ऊपर ही होगा। क्यों न राजा से साम्राज्य ही माँग लूँ। ___ बहुत देर हो चुकी थी। सम्राट ने कहा - कपिल तुम क्या सोच रहे हो, जो माँगना हो माँगो। तुम भी क्या याद करोगे कि नगर सेठ के द्वार पर पहुँचना चाहता था
और राजा के द्वार पर पहुँच गया। आज तो अपनी अभिलाषा पूर्ण कर ही लो। जैसे ही वह कहने को हुआ कि सम्राट मुझे तुम्हारा राज्य चाहिए, तत्काल उसकी चेतना लौटी कि अरे, वह कहाँ से कहाँ पहुँच गया। दो माशा सोना लेने के लिए याचक ब्राह्मण, पल भर में राजा से, दाता से, उसका राज्य छीनने को तैयार हो गया। ___ अर्थ स्पष्ट हो गया कि जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। साफ जाहिर हुआ कि चाह की पूर्ति करने से चाहत और बढ़ जाती है। हमारी कामना की प्यास तृप्त नहीं होती। वह और बढ़ जाती है। तो, क्या पाने से ही जीवन की तृप्ति है? नहीं! मन जैसे ही शान्त हुआ वे दो स्वर्ण-मुद्राएँ भी दिमाग से चली गई। तब उसने
आँखों से अश्रु बहाते हुए राजा से कहा, ये आँसू आपके लिए नहीं है। मुझे स्वयं पर रोना आ रहा है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। सम्राट बोला - यह तुम क्या कह रहे हो ब्राह्मण, तुम तो पाने के लिए आए थे और अब कह रहे हो कि कुछ नहीं चाहिए। हाँ, सम्राट अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। चाहने से कभी तृप्ति नहीं हुई। पाने से कभी तृप्ति न होगी। अलोभ से ही लोभ को शान्त किया जा सकता है। लोभ लोभ से नहीं, अलोभ से ही शान्त होता है। और उसी समय कपिल ने अपने हाथों को आकाश की
301
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org