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________________ 1 1 अधिकार प्राप्त होता । परहेज रखकर तो कोई भी स्वयं को बचा लेगा, लेकिन काजल की कोठरी से बेदाग निकल आना सबके लिए संभव नहीं । सामने भोजन रखा हो और उस पर नज़र भी न उठे तो जानना कि त्याग हुआ है, अन्यथा जीवन भर छोड़ना होता जाएगा और छूटेगा कुछ भी नहीं । जैन के संस्कार हैं तो आलू-प्याज छोड़ दोगे, लेकिन खाने के प्रति आसक्ति नहीं छूटेगी। उपवास तो करोगे पर पहले गरिष्ठ भोजन करोगे। फिर उपवास पूरा हो, उससे पहले ही खाने की रूपरेखा बनाना भी शुरू कर दोगे। तुम तीन दिन के उपवास करते हो। उसके पहले उत्तर पारणा करते हो। अच्छा शब्द है- उत्तर पारणा । उपवास के पूर्व भी खाना, और बढ़िया-सेबढ़िया भोजन करना क्योंकि कल से उपवास है तीन दिन का। तीन दिन का उपवास पूर्ण होगा कल और आज रात से ही प्रबंध शुरू हो जाएँगे कि कल पारणे में क्या-क्या लेना है। इससे तो अच्छा है कि भूखे न रहो । भोजन ही कर लो । यूँ तो तुम सादा भोजन करते हो, पर उपवास के नाम पर ....! 1 उपवास भूखे रहने के लिए नहीं है। उपवास तो भोजन के प्रति रहने वाली आसक्ति को मिटाने के लिए है । जब तक आसक्ति बरकरार रहती है, तुम्हारे उपवास हुए ही कहाँ । छोड़ने से कुछ भी नहीं छूट रहा, मन में तो इच्छा हो जाती है कि खा लो। कोई देखने वाला भी नहीं है, लेकिन फिर विचार आता है, ग्रंथों में लिखा है, गुरु महाराज ने भी इतना कहा है, तो अब छोड़ ही दो । तब मजबूर होकर, किसी भावना से उत्प्रेरित होकर हम छोड़ देते हैं । लोग संन्यास लेते हैं, मुनि बन जाते हैं, पर वास्तव में कितने मुनित्व को उपलब्ध हो पाते हैं, यह अन्वेषण का विषय है । साधुओं को तो अपनी जमात बढ़ानी है, क्योंकि वे देखते हैं कि अकेले तो गाँव वाले गाँव में घुसने न देंगे। गाँव वाले सोचेंगे - होगा कोई ऐसा-वैसा । हाँ ! यदि चार साधु साथ हैं तो जरूर कुछ पहुँचा हुआ होगा । अब इनसे पूछो कि अध्यात्म का भीड़ से क्या लेना-देना? जब तुम खुद ही कहीं नहीं पहुँच सके, तो दूसरे को क्या पहुँचा पाओगे? जब तक यह विश्वास न हो जाए कि तुम स्वयं अध्यात्म को उपलब्ध हुए हो, तब तक दूसरे के जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं करनी चाहिए । स्वयं को यह अनुभव होने पर कि हाँ, मैंने पाया है और मेरे सम्पर्क में कोई बुझा हुआ दीप आता है, तो मैं अनिवार्यत: उसे ज्योतिर्मय कर दूँगा, ऐसा सामर्थ्य, ऐसी दिव्यता, ऐसी ज्योतिर्मयता, ऐसी गुरुता मुझमें है, तभी अपनी ओर से किसी दीये को आने का आमंत्रण दें, आह्वान करें, अन्यथा किसी की श्रद्धा और समर्पण का तो अमानवीय दोहन होगा । लोगों के जीवन में ईमानदारी नहीं है । संन्यास हो या संसार, ईमानदारी नहीं है । जब भीतर ईमानदारी जाग्रत होगी, तब तुम रोओगे, प्रायश्चित करोगे कि किस-किस Jain Education International For Personal & Private Use Only 13 www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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