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________________ रहोगे? कब तक तृष्णा को सुख और पारिवारिक शोर को शान्ति मानते रहोगे? वैसे भी इस प्रेम, सुख और शान्ति को कौन बरकरार रख सका है ? प्रतिदिन वही - वही क्रियाएँ दोहराते रहते हो लेकिन कभी शान्ति पा सके ? तुम इतने भरे हुए हो कि दस मिनट भी अकेले और शान्त नहीं रह सकते । दस मिनट में ही अत्यधिक बेचैन और उग्र हो जाओगे। कुछ न कुछ करने को व्याकुल हो उठोगे। अगर तुम्हें तीन दिन तक अकेला छोड़ दिया जाए तो तुम स्वयं से ही बातें करने लगोगे और सात दिन तक किसी खाली कमरे में अकेला रख दिया जाए, तो पागल हो जाओगे, पागलों जैसी हरकतें करनी शुरू कर दोगे । जन्म लिया तब अकेले थे, मृत्यु भी अकेले को ही ले जाएगी, लेकिन हमने अपने चित्त को, अपनी चेतना को भीड़ से इतना संबद्ध कर लिया है कि बिना भीड़ के सब नीरस ही लगता है । उसके बिना जीवन प्रतीत ही नहीं होता । हम क्रोध से भी जुड़ गए हैं। कुछ दिन क्रोध न करें, तो ऐसा लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं, खाली-खाली सा लगता है । वासना ने इतना जकड़ लिया है कि बिना पत्नी के रह ही नहीं सकते। एक का इन्तकाल हो जाए तो दूसरी ले आते हैं, दूसरी चली जाए तो तीसरी.... । खाली व्यक्ति अपने को भरने का प्रयास कर रहा है । शान्ति, मौन, आनन्द से नहीं भर पाता । आन्तरिक खुशियों से नहीं भर पाता, तो भरता अपने को परिवार से, बच्चों से, धन-दौलत से, ज़मीन-जायदाद से । लेकिन बाहर से कभी कोई भर पाया है? बाहर से जरूर भरा-पूरा दिखाई देगा, लेकिन आन्तरिक दरिद्रता यथावत् विद्यमान रहती है। बाहर से तो भीतर कुछ जा नहीं पाता, हाँ! तुम जरूर भीतर से बाहर आ जाते हो। यह चेतना जो भीतर से बाहर बह रही है, यही हत्मा है । तुम स्वयं को धर्मात्मा समझ सकते हो, क्योंकि तुम रोज मंदिर जाते हो, पूजाअर्चना, सामायिक प्रतिक्रमण करते हो, लेकिन कभी यह भी देखा कि तुम कितनी भावहीनता के साथ हर क्रिया को सम्पन्न कर रहे हो ? जैसे दुकान - दफ्तर जाने का काम करते हो उसी ढंग से मंदिर, पूजा-अर्चना भी निपटा देते हो। कहीं कोई उमंग, कोई आह्लाद आविर्भूत होता है ? मनुष्य बाहर से भीतर की ओर मुड़े, भीतर की ओर देखे, भीतर का स्वाद चखे, भीतर की सुवास का आनन्द उठाए, तो वह जानेगा कि जहाँ वह है वहीं लीला हो रही है। आख़िर जीवन सिर्फ़ आजीविका कमाने के लिए तो नहीं है? जब तक जीवन की उपयोगिता के बारे में सोचते रहोगे, जीवन का कोई उपयोग नहीं कर पाओगे, क्योंकि तब वह दस मिनट भी खाली न रह सकेगा । उसमें भी सोचेगा कि क्या करूँ, कैसे समय गुजारूँ। कुछ-न-कुछ करना शुरू कर दोगे । रेडियो सुनने लग जाओगे, 111 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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