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________________ एक और प्रश्न है : मुक्ति पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए? मुक्ति सबको प्रिय है। मन की शान्ति ही मुक्ति है। मुक्ति का कोई भूगोल या उसकी सीमाएँ नहीं है। शान्त, निर्मल और निरपेक्ष मन का परिणाम है मुक्ति । मन का द्वन्द्वरहित, मत और पक्षरहित होना मुक्ति को जीना है। मुक्त होना मानव मात्र का ध्येय और अधिकार है। मन निरन्तर अराजकता फैला रहा है। आखिर हम मन के बहकावे में कब तक बहते-भटकते रहेंगे। स्वार्थ, कषाय और विकार के तिलिस्म में हम सब कैद हैं। आखिर ऐसा कौन है जो 'कैदी' न हो। क्रान्ति चाहिए, आध्यात्मिक क्रान्ति, एक ऐसी क्रान्ति जो मोह के अण्डे से मन के चूजे को बाहर निकाल डाले, घोंसले में सिकुड़े बैठे पंछी में साहस की चेतना जगा दे, पंख खुल पड़े और मनुष्य मुक्ति का आकाश-भर आनन्द उठा ले। भीतर बैठा स्वामी हमें पुकार रहा है जीवन के नये क्षितिजों को उन्मुक्त करने के लिए, मुक्ति के मानसरोवर में विहार करने के लिए। हम बाहरी जगत, उसकी प्रकृति से, भीतर बैठे पुरुष को अलग देखें। विचारों, विकल्पों, वृत्तियों से स्वयं को अलग अनुभव करें। स्वयं के प्रति सचेतन होएँ; अपने-आप से प्रेम करें। जब तक सोच-विचार का भंवरजाल उमड़ता-घुमड़ता रहेगा और वृत्तियों की खलबली मची रहेगी, हम परिधि पर ही रहेंगे, केन्द्र तक नहीं पहुंच पाएँगे। माना, अपने आपको जीतना कठिन है, पर अपने आप से हारकर जीना तो शर्मनाक है। हम धैर्यपूर्वक ध्यान धरें, स्वयं को और स्वयं की प्रकृति को समझें, स्थिर चित्त रहें, स्वयं को शान्त, मौन हो जाने दें, ताकि हमारे मौलिक व्यक्तित्व को, अस्तित्व को साकार होने का अवसर मिल सके, चेतना का सुख हमें तरबतर, आनन्द से अभिभूत कर सके। मुक्ति-सुख पाने के लिए कुछ सुझाव हैं। पहला है : ग्रन्थियों को शिथिल करें। ग्रन्थि यानी गाँठ, मन की गाँठ, मोह की गाँठ, मत और पक्ष की गाँठ। मतों से मुक्त होना और पक्षों के प्रति निष्पक्ष रहना, मुक्ति के द्वार का उद्घाटन है। किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति होने वाली मूर्छा, आसक्तिपूर्ण स्मृति भी मनुष्य की ग्रन्थि ही है। ग्रन्थियाँ मनुष्य की मूर्छावस्था है और मनुष्य को मूर्छा का दौरा पड़ता रहता है। ग्रन्थि-मुक्त ही निर्ग्रन्थ है और निर्ग्रन्थ ही मुक्ति का वह सुख अर्जित करता है, जिसे पाने के लिए सम्राटों तक ने अभिनिष्क्रमण किया। 118/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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