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________________ भर्तृहरि को वहीं पहाड़ी पर बैठे-बैठे साधनात्मक जीवन का नया सूत्र मिला कि वस्तु वही रहती है पर उसे पाने का भाव आ जाए तो जीवन और मृत्यु का प्रश्न खड़ा हो जाता है, किन्तु साक्षीभाव, दृष्टाभाव के उदय होने पर पाने की पीड़ा समाप्त हो जाती है। साक्षी-भाव में जीने पर उसके लिए सृष्टि में कोई पीड़ा, कोई आर्त भाव, कोई वेदना नहीं है। घटना हमें कुछ कहना चाहती है। घटना उन लोगों के लिए संदेश है, जो अपनी अन्तरात्मा के प्रति जागरूक और सचेत हुए हैं। वस्तु के प्रति व्यक्ति की जितनी मूर्छा होगी, वस्तु व्यक्ति के द्वारा उतना ही मूल्य प्राप्त करती रहेगी। वस्तु का मूल्य है या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन वस्तु अपना मूल्य व्यक्ति की आँखों से बढ़ाती है। यह मनुष्य की ही दृष्टि है कि उसने सोने को मूल्यवान बनाया और पीतल को हल्का, कम मूल्य का रखा। दोनों का रंग एक, दोनों में चमक एक, लेकिन एक निर्मूल्य और दूसरा मूल्यवान । मूल्य वस्तु का नहीं हमारी दृष्टि का है, और जब तक हमारी दृष्टि में वस्तु का मूल्य है तभी तक हम उसे इकट्ठा करते रहेंगे। परिग्रह अन्य कुछ नहीं, वस्तु के प्रति आसक्ति और मूर्छा ही है। जिस दिन वस्तु के प्रति मूर्छा टूट गई, वस्तु निर्मूल्य हो जाती है। महावीर और बुद्ध जो पूरे राज्य के स्वामी थे, जब जान ही गए कि ये सब आसक्ति और मूर्छा के साधन हैं, इन्हें तृणवत् त्याग कर मुक्ति-पथ के अनुगामी हुए। तुम तो पच्चीस-पचास लाख रखते हो बमुश्किल कुछ हजार छोड़ पाते हो और उन्होंने सम्पूर्ण राजवैभव, राजमहल और राज्य का त्याग किया। क्योंकि उन्होंने जान लिया कि जिसे मैं हीरा समझता था वह मेरी ही दृष्टि का भ्रम था, वह तो कंकर जैसा था। और जिस दिन हीरा कंकर जैसा दिखाई पड़ जाता है, अपने आप छूट जाता है। आठ वर्षीय बच्चे की जेब में अगर काँच के कंचे हैं और आपकी जेब में हीरे हैं तो उस बच्चे की जेब से कंचे निकलवाना उतना ही कठिन है जितना आपकी जेब से हीरे। उसके लिए काँच के कंचों का मूल्य है, वह हीरे फैंक देगा मगर कंचों को संभालेगा और आप काँचों को पलक झपकते फैंक देंगे मगर हीरों को न फैंक पाएँगे। मूल्य हमारी दृष्टि देती है। बच्चे के लिए रेत का घरौंदा भी उतना ही मूल्यवान है जितना आपके लिए आपका मकान । वस्तु और व्यक्ति दोनों के बीच रेशम के धागों में बँधा ऐसा रागात्मक संबंध है जो व्यक्ति को बाँधे रखता है, वस्तु को मूल्य दिलवाता है । जिस दिन यह बोध हो जाता है कि वस्तु स्वयं में कोई मूल्य नहीं रखती, मेरे ही विभ्रम से, मेरे ही प्रमाद से मैं बंधा हुआ था उस दिन आपसे अपार संपदा, राजमहल, राजवैभव भी स्वतः छूट जाते हैं, उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता। मैंने सुना है कि एक व्यक्ति मारुति के शोरूम में पहुँचा और कहा मुझे आज ही मारुति जिप्सी चाहिए। प्रबंधक ने स्पष्ट इंकार कर दिया और बताया कि मारुति 100/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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