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यह सोच-सोचकर व्याकुल रहना कि तू तो मर गई, लेकिन मेरी रातें हराम कर गई, क्या इस व्याकुलता का कोई अर्थ है? सिवाय आत्मक्षति के कोई परिणाम नहीं है। अब जिसके घर बेटी पैदा हो गई, वह इस बात को लेकर चिंतित रहता है कि बेटी को कैसे बड़ी करूंगा, पढ़ाऊंगा, ब्याह करूंगा। ओह, प्रकृति जो दे, उसकी व्यवस्था की चिंता करना उसे देने वाले का काम है, न कि हमारा।
आखिर जो जीवन देता है, वह जीवन की व्यवस्था भी देता है। जहां प्यास है, वहां पानी भी है; जहां धूप है, वहां उससे बचाने के लिए शीतल छांह की भी व्यवस्था है। फिर चिंता किस बात की! भला किसी की बेटी धन के अभाव में कुंआरी रही है? मेरी शांति और निश्चितता का एक छोटा-सा मंत्र रहा है-जो जीवन देता है, वह जीवन की व्यवस्था भी देता है। मैं पैदा हुआ, उससे पहले मेरी मां की छाती दूध से भर गई। जिस व्यवस्थापक की ओर से जीवन के प्रथम चरण में ही इतने पुख्ता बंदोबस्त हैं, फिर चिंता किस बात की। मस्त रहो मस्त, पूरी तरह निश्चित!
हीन न मानें, आत्मविश्वास की अलख जगाएं हम क्रम में अगला संकेत यह है कि हम अपने हृदय में हीन-भावना को स्थान न दें। मैं छोटा वह बड़ा, मैं निर्बल वह बलवान, मैं गरीब वह धनवान, मैं सांवला वह रूपवान, मैं छोटी जाति का, वह उच्च कुलवान! मन के द्वारा किया जाने वाला यह भेद ही आदमी को हीनता की ग्रंथि से घेर लेता है। रंग-रूप-जाति के ये जो भेद हैं, ये किसी दुनिया के द्वारा स्थापित नहीं, वरन् आदमी के कमजोर मन के द्वारा खड़ी की गई दीवारें हैं। कोई भी आदमी महज अपने रंग-रूप-जाति के कारण ऊंचा और महान नहीं हो सकता। आदमी का जीवन, उसके गुण और उसके कर्म ही आदमी को ऊंचा या नीचा बनाते हैं। आखिर मूल्य सदा ज्योति का होता है, दीयों का नहीं। इससे कहां फर्क पड़ता है कि दीया मिट्टी का है या चांदी का। सच्चा स्वर्णदीप तो वही है, जो ज्योतिर्मय हो, फिर चाहे वह मिट्टी का ही क्यों न बना हो।
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