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तो होता ही है, व्यक्ति की शारीरिक बीमारियों पर भी काफी कुछ नियंत्रण किया जा सकता है। इस पद्धति का सार - सूत्र इतना ही है कि व्यक्ति के मानसिक लक्षणों के आधार पर शारीरिक रोगों की चिकित्सा हो । यह चिकित्सा-पद्धति हाल ही में बहुत कारगर सिद्ध हुई है । भारत में भी कई शहरों में इस पद्धति के केंद्र संचालित हैं । जोधपुर स्थित संबोधि-धाम में भी हाल ही में इसका नया केंद्र स्थापित हुआ है।
चिंताओं की चिता जलाएं
चाहे व्यक्ति औषधि का उपयोग करे या सम्यक् समझ का, मूल बात मनोदशा को सुधारने की है । हृदय की दशा बदल जाए, सुधर जाए, तो जीवन की हर गतिविधि का स्वरूप ही परिवर्तित और संस्कारित हो जाता है। सीधी-सी बात है कि आईने को बदलने से चेहरे नहीं बदला करते हैं, चेहरा बदल जाए, तो आईना अपने आप ही बदल जाता है । हम कृपया अपने आपको उत्साह और उल्लास से भरें; साहस और विश्वास से आपूरित करें; अपनी इच्छा-शक्ति को प्रखर करें, फिर देखें कि जीवन का कौन-सा कार्य दुष्कर है, कष्टकर है, असाध्य है ।
जीवन के सहज सौंदर्य को प्रगट करने के लिए चित्त में पलने वाली चिंताओं की चिता जला डालें। जीवन का सत्य तो यह कहता है कि चिंता तो स्वयं चिता ही है । काष्ठ की चिता घंटों में जल जाया करती है, पर भूसे की चिता जलती नहीं, केवल धुंवाती है। हृदय में चिंता को पालना तो भूसे को ही सुलगाना है, यानी एक ऐसी चिता की व्यवस्था करना है, जो न तो पूरा जलाती है और न जीने जैसा रखती है ।
कोई व्यक्ति अगर किसी सार्थक पहलू पर चिंता करे, तो समझ में भी आती है, पर व्यर्थ की बीती - अनबीती बातों पर दिन-रात घुटते रहने का कहां औचित्य है। आखिर जो बीत चला, उसे लाख याद करने पर भी लौटाया नहीं जा सकता, जो अनबीता है, उस आने वाले कल को आखिर खींचकर तो आज बनाया नहीं जा सकता । अब जिसकी पत्नी मर गई, उसके लिए
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