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सहानुभूति से बढ़कर सौंदर्य क्या !
इंसान के द्वारा इंसान को निभाना, इंसान द्वारा प्राणिमात्र से प्यार करना, इससे बड़ा धर्म और क्या होगा! कोई व्यक्ति संन्यास ही क्यों न ले ले, पर जब-जब भी इस धरती पर जिस किसी दिव्य पुरुष ने बोधिलाभ और कैवल्य की आभा अर्जित की, अंततः वापस उसे मानवता की ही गोद में आना पड़ा; उसकी ज्ञान-दृष्टि ने उसे मानवता की सेवा के लिए ही संप्रेरित किया । आह, सेवा से बढ़कर सुख क्या, प्रेम से बढ़कर प्रार्थना क्या और सहानुभूति से बढ़कर सौंदर्य क्या ! जिसके हाथों में सेवा है और आंखों में प्रेम और सहानुभूति का माधुर्य, उससे बढ़कर प्यारा इंसान कौन होगा ! ध्यान रखो, तुम्हारी काया, जो अंततः राख हो जाने वाली है, अगर उसके द्वारा कुछ मानवता की सेवा हो जाए, तो इसे मृत्यु में से भी अमृत निकल आने वाला अवदान समझो।
जब मैं किसी भी पीड़ित को देखता हूं, तो पीड़ा का ऐसा साधारणीकरण हो जाता है कि वह पीड़ा अपनी ही पीड़ा नज़र आने लगती है और तब हृदय की करुणा उस पीड़ा को मिटाने के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहती है । किसी भी पीड़ित के लिए अपनी ओर से जो कुछ भी हो जाए, वह सब अपनी ओर से सहानुभूति है । हमारी तो वह करुणा है और उसकी वह
आवश्यकता ।
कोई अगर मुझसे पूछे कि प्रेम, दया और करुणा का व्यावहारिक स्वरूप क्या है, तो मेरा सीधा-सा विनम्र जवाब होगा - आत्मीयता भरी सहानुभूति । ज़रा दुनिया में देखो तो सही कि कितना दुःख और कितनी पीड़ा समाई हुई है। तुम्हें अगर सौ आंखों में सुख दिखाई देता है, तो हज़ार आंखों में दुःख है । सौ भरपूर दिखाई देते हैं, तो हज़ार ज़रूरतमंद | दुनिया में अमीरों से ज्यादा गरीब हैं, साधुजनों से ज्यादा असाधुजन हैं, पुण्यात्माओं से ज्यादा पापी हैं । सहानुभूति की ज़रूरत साधुजनों और पुण्यात्माओं के प्रति नहीं, वरन् उन दीन-दुःखी-असाधुजन-पापियों के प्रति ज्यादा है, जिन्हें कि वास्तव में इनकी ज़रूरत है
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