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के व्यक्ति थे, किंतु उसकी संतान बड़ी सात्विक प्रवृत्ति की रही। मैंने अनुसंधान करना चाहा कि पिता और संतान के बीच यह संस्कार-भेद कैसे हो पाया। मुझे जानकारी मिली कि उन संतानों की मां बड़ी धार्मिक और सात्विक प्रवृत्ति की महिला थी। एक परिवार में मैंने देखा कि माता-पिता तो अत्यंत धर्मपरायण और सरलसात्त्विक प्रवृत्ति के व्यक्ति रहे, लेकिन उनकी पांच संतानों में से दो संतानें बदचलन प्रवृत्ति की रहीं। इसका कारण जानना चाहा, तो पाया कि वे दो व्यक्ति बचपन में बुरे लड़कों की संगत में चले गए, इसलिए ऐसे हो गए। किसी परिवार में जहां चार संतानें होती हैं, इस बात को देखकर आप चकित हो उठेंगे कि सबकी विचारधाराएं अलग हैं, जीवन की दृष्टि और तौर-तरीके अलग हैं। आखिर इसका कारण क्या? इसे माता-पिता का परिणाम माना जाए या संगति का असर? उनमें जो भिन्नता दिखाई देती है, वह न तो संगति अथवा वातावरण का असर है और न ही आनुवंशिकता का। यह सबके पूर्व जन्म के अपने-अपने संस्कारों का परिणाम है। जिसके जैसे संस्कार होते हैं, उसकी वैसी ही प्रकृति और नियति बन जाती है।
संस्कार-सुधार का पहला प्रयास स्वयं से
कौन व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसकी भावी पीढ़ी सही, सुशील और गरिमापूर्ण न हो। चाहता तो हर कोई है, पर केवल चाह लेने भर से क्या होगा! हमें अपने और अपने घर वालों से शुरुआत करनी होगी। हमें अपने भाई, बहन और बच्चों के संस्कारों को परिष्कृत करने के लिए प्रयत्नशील होना होगा। हमें संसार के संस्कारों को सुधारने के लिए अपने आपको संस्कारित करना होगा। स्वयं को सुधारने का दायित्व तो आखिर स्वयं पर ही जाता है। एक पिता वह होता है, जो संतान को केवल जन्म देता है; दूसरा पिता वह होता है, जो अपनी संपत्ति देता है, जबकि तीसरा, पर सर्वोत्तम पिता वह होता है, जो अपनी संतान को सही संस्कार देता है। जन्म देने वाले पिता
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