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भुला दिए जाते हैं, संपत्ति देने वाले पिता लड़ाई-झगड़े की नींव रख जाते हैं, परंतु संस्कार देने वाले पिता गुरु का भी दायित्व निभा लेते हैं । संस्कारशील संतान हमारी श्रेष्ठतम निर्मिति हैं । वे हमें जीते-जी तो सुख पहुंचाते ही हैं, मरणोपरान्त भी न केवल हमें याद करते हैं, वरन् हमारी गौरव गाथा को अक्षुण्ण बनाए रखते हैं ।
जीवन के सम्यक् संस्कार के लिए हम पड़तालें कि हममें कौन-सी बुरी आदतें घर कर चुकी हैं; हमारा उठना-बैठना कहीं उन लोगों के साथ तो नहीं है, जो बदचलन हैं या जिनके इरादे नेक नहीं है? हम सबसे पहले बुरी मित्र-मंडली से बचें। सौ बुरे मित्रों की बजाय अकेला रहना जीवन के लिए ज्यादा श्रेष्ठ है । यह ठीक है कि जीवन में मित्र होने चाहिए, पर ऐसे मित्रों का बोझ क्यों ढोएं, जो हमारे संस्कारों और हमारी गरिमा के लिए आत्मघातक । नहाना अच्छी बात है, पर गंदे पानी से नहाने की बजाय न नहाना ही श्रेष्ठ है।
फिर से दीप जलाएं
संभव है कि हममें कोई बुराई घर कर चुकी हो । अगर ऐसा है, तो इसके लिए हम आत्मग्लानि का अनुभव न करें। बुराई आ जाया करती है । आज बुराई है तो क्या हुआ, हम जीवन के प्रति नेक दृष्टि अपनाकर अच्छाई भी आत्मसात् कर लेंगे । बुरा कोई जीवनभर बुरा थोड़े ही रह सकेगा । अच्छाई के प्रयास हों, तो बुराई को बदलने में कितना वक्त लगता है। यह चमत्कार हमारी निर्मल दृष्टि व निर्मल सोच से ही संभव हो सकेगा। आओ, हम जीवन में फिर से दीया जलाएं; घर-घर और घट-घट दीप जलाएं। शुरुआत अपने आप से करें ।
हम अपने क्रोध- आक्रोश का त्याग करें; दुर्वचन - दुर्भाषा का त्याग करें; दुराचार और दुर्व्यवहार का त्याग करें; मन में पलने वाली घृणा और घमंड का त्याग करें। हम पेश आएं सबके साथ विनम्रता और शालीनता से । हमारा विनम्र प्रस्तुतिकरण लोगों के हृदय में हमारा स्थान बनाएगा । यदि
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