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________________ मां : पहली शिक्षिका शिक्षा तो वह है, जो हमें हमारी मिथ्या-दृष्टि से मुक्त करे। जिससे जीवन की अंतर्दृष्टि मिले, वही शिक्षा आदमी के लिए वास्तविक रूप से कल्याणकारी है। शिक्षा जब तक जीवन की दीक्षा के रूप में न ढले, तब तक वह अधूरी ही है। जहां शिक्षा का गुरुतर भार वहन करते हैं शिक्षक और प्रोफेसर, वहीं दीक्षा का संस्कार होता है उसके अपने घर वालों के द्वारा। घर के संस्कार शिक्षा को दीक्षा के रूप में ढालते हैं। यह कार्य सही रूप से संपादित कर सकती है-हमारी अपनी मां। पिता तो रोजी-रोटी कमाने की व्यवस्था में व्यस्त हो जाते हैं, लेकिन मां हर बच्चे को दीक्षित कर सकती है। वह सही अर्थों में जीवन की पहली शिक्षिका है। अपना बच्चा कैसा बने, इसके लिए सबसे ज्यादा सजग मां ही होती है। हर मां अपने बच्चे को ऊंचा उठा हुआ देखना चाहती है। इसके लिए वह बच्चे से भी श्रम कराती है। शिक्षा, शिक्षक और विद्यालय का भी उपयोग करती है। निश्चय ही जन्म देने वाले की महिमा इसी में है कि वह अपने जने हुए को संस्कारित और विकसित रूप प्रदान करे। यह बात ठीक है कि आज की शिक्षा-शैली का स्वरूप बदल चुका है; बच्चों पर किताबों का इतना भार आ चुका है कि वह उनकी उम्र के अनुसार उनके लिए दबाव और तनाव का ही कारण बनता है। आजकल हम दो-ढाई-तीन वर्ष की उम्र में ही बच्चे को स्कूल भेजना शुरू कर देते हैं। हमारे इस पुरुषार्थ से बच्चे में बहुत जल्दी ही स्कूल जाने की आदत पड़ जाती है, लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि बचपन में जो घरेलू संस्कार पड़ने चाहिए, उनका बीजारोपण नहीं हो पाता। बच्चा केवल किताबी ज्ञान में ही उलझ जाता है। न ही उसको नैसर्गिक गुणों के विकास का आधार मिल पाता है और न ही उदात्त गुणों के परिसंस्कार का वातावरण। 60 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003877
Book TitleJiye to Aise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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