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शिक्षा वही, जो संस्कारित करे
आज हमने शिक्षा को नए युग की नया रूढ़ि और नया फैशन बना डाला है। हम बच्चे को संस्कारशील विद्यालय में दाखिला दिलाने की बजाय होड़ाहोड़ में ऐसे विद्यालयों में भेजना पसंद करते हैं, जहां जाकर बच्चा न इधर का रहता है, न उधर का। शिक्षा तो स्वयं एक सेवा है। आज तो शिक्षा और चिकित्सालय विशुद्ध व्यावसायिक प्रतिष्ठान हो गए हैं। जो स्कूल जितना महंगा, उसका ‘स्तर' उतना ही ऊंचा! अब ऐसी शिक्षा का हम क्या करें, जिससे उठने-बैठने और खाने-पीने का भी विवेक न रहे। इस ‘हाय-हैलो' के जमाने में माता-पिता और बड़ों को प्रणाम करने में भी संकोच और शर्म महसूस होती है। भला जिसे अपने माता-पिता को ढोक लगाने में भी शर्म आती है, वह उनके वक्त-बेवक्त में क्या तो काम आएगा और क्या सेवा करेगा! ऐसी शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का विकास तो ज़रूर होगा, लेकिन उसकी स्वार्थ-चेतना का ही। आखिर व्यक्ति के अपने सौम्य स्वरूप का भी महत्त्व होता है। सबके साथ मिलने-बैठने का, एक-दूसरे के सुख-दुःख में काम आने का, मर्यादा और शालीनता का अपना अर्थ और महत्त्व है, उसकी अपनी आवश्यकता है, उसका अपना परिणाम है। हम चाहे शिक्षा लें अथवा दें, शिक्षा का लक्ष्य पेट भरने तक सीमित न रहे। शिक्षा तो व्यक्तित्व-विकास का आधार है। शिक्षा को हमें नित्य-नवीन विकास के पहलुओं से जोड़ना चाहिए और ज्ञान के नित्य-नवीन-नायाब पहलुओं का उपयोग करना चाहिए।
स्वीकारें, स्वाध्याय का संकल्प
हम स्वाध्याय अवश्य करें। हम केवल पठन और अध्ययन तक ही सीमित न रहें, वरन् ज्ञान के पैमानों को थोड़ा विस्तार दें। हम चिंतन-मनन और अनुसंधान भी करें। अपनी बुद्धि का मनन के लिए उपयोग न कर पाने के कारण ही ज्ञान और जीवन के बीच एक विरोधाभास अथवा एक साफ दूरी
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