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क्या हम इस बात पर ध्यान देंगे कि हमारी ओर से होने वाला वाणी-व्यवहार हमें सम्मानित कर रहा है या उपेक्षित? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अमर्यादित बोलते हों? आत्म-प्रशंसा और परनिंदा में रस लेते हों! अपशब्द या व्यंग्य का उपयोग करते हों! मिथ्या अहं के चलते औरों की उपेक्षा कर बैठते हों या क्रोध के आवेश में अपनी और दूसरे की मर्यादाओं को खंडित कर बैठते हों! अथवा शरीर के द्वारा विकृत मुख-मुद्रा, आंख मारना, घूरना, छेड़खानी करना, दांत किटकिटाना जैसी दुवृत्तियों को दुहराते हों! व्यवहार चाहे वाणीगत हो या चेष्टागत अथवा कर्मजन्य, उस पर संयम, सदाचार और सौम्यता का अवलेह अवश्य होना चाहिए।
शिष्टता से बढ़कर संजीवन नहीं सदाचार तो अमृत है। सादगी और सदाचार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और प्रपंच तथा दुराचार से बढ़कर कोई पाप नहीं। शिष्टता से बढ़कर कोई संजीवन नहीं और अशिष्टता से बढ़कर कोई मृत्यु नहीं। दूसरों के द्वारा अशिष्ट और ओछा व्यवहार किए जाने पर भी स्वयं पर आत्म-नियंत्रण रखना और अपनी ओर से सदा सबके प्रति सरलता, प्रसन्नता और मधुरता से पेश आना जीवन की आदर्श साधना है। संस्कार व्यक्ति के आचार-व्यवहार को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति के जैसे संस्कार होंगे, उसका जीना-मरना भी वैसा ही होगा। किसी ने कहा, 'तुमने चोरी की है, तो उसका दंड तो मिलेगा ही।' जवाब मिला, ‘दंड केवल मुझे ही नहीं, मेरे अभिभावकों को भी दिया जाए, जिन्होंने मेरी चोरी की आदत को जानते हुए भी मुझे इससे दूर रखने का प्रयत्न नहीं किया।' एक महानुभाव ने किसी बच्ची से पूछा, 'तुम सबके साथ इतनी शालीनता
और सम्मान से कैसे पेश आती हो?' जवाब मिला, 'इसमें कोई विशेष बात नहीं है। मेरे घर में सभी एक-दूसरे के साथ ऐसे ही पेश आते हैं।'
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