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पलायन की प्रवृत्ति न पालें मुझे अपने आप से प्यार है। जितना स्वयं से है, उतना ही आप से। न मैं स्वयं को दुःखी और कष्टानुभूति में देखना चाहता हूं और न ही किसी और को। मैं स्वयं भी स्वस्थ, सुंदर और स्वस्तिकर जीवन में विश्वास रखता हूं
और अपने द्वारा सबके प्रति वैसा ही व्यवहार करता हूं। मैं मानकर चलता हूं कि मुझे स्वप्न में भी ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी का अहित हो। चूंकि मैं स्वयं का हित चाहता हूं, इसीलिए किसी और का अहित नहीं कर सकता। हां, यदि जीवन में हमें किसी बाधा या किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो हमें इसके लिए या तो सहर्ष या समत्व भावना के साथ स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए, क्योंकि आज जो हमारे साथ हो रहा है; उससे पलायन कैसा! वह तो सौगात है हमारे अपने ही कृत्य की। हमारे साथ जो होना है, एक बार उसे हो ही जाने दें। आखिर कोई भी बादल तभी तक तो गरजेगा, जब तक उसमें पानी का भार होगा। किसी भी कटु बात या विपदा को सहन करने से स्वयं के गौरव और मूल्यों की छीजत नहीं होती, उल्टे बढ़ोतरी ही होती है। किसी ने गुस्सा किया और हम भी जवाब में गुस्सा कर बैठे, तो यह दोनों का ही बुद्धपन रहा। उस गुस्से से दोनों में दूरी ही बढ़ेगी। भला गुस्सा किसी के हृदय में कभी सौहार्दपूर्ण जगह बना पाया है? क्रोध कोई सनातन धर्म नहीं है। यह पानी का बुलबुला या गरम हवा का झोंका भर है। उसके प्रेत-स्वरूप की उम्र कितनी! यदि हमने किसी के गुस्से को विवेक और धीरज से पचा लिया, तो अवश्य ही इसका शुभ परिणाम आने की पूरी उम्मीद है। वह गुस्सैल व्यक्ति अपने क्रोध के शांत होने पर प्रायश्चित्त और आत्मग्लानि से भर उठेगा। उसे अपना कद छोटा महसूस होगा और वह अपनी अगली बातचीत में इस तरह से भाव और भाषा का उपयोग करेगा कि उसे सही में ही स्वयं के दुर्व्यवहार की पीड़ा हुई। उससे वह गलती दुबारा न हो, ऐसे संकल्प का बीज भी वह अपने आप में बो लिए जाने का भाव ग्रहण करेगा।
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