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शंकर काशी में थे, वे भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर गंगा के तट पर आए। वहाँ उन्होंने दो बूढ़े व्यक्तियों को देखा। उनमें से एक व्याकरण के सूत्रों को याद कर रहा था और दूसरा बूढ़ा अपने पोते-पोतियों के मायाजाल में उलझा हुआ था। तब आचार्य शंकर ने कहा - अरे, तेरे अंग गल गए हैं, दाँत टूट गए हैं, चेहरा झुक गया है, चेहरे पर झुर्रियाँ छा गई हैं, कमर झुक गई है। आँख से देख नहीं सकते, कान से सुन नहीं पाते, लेकिन इसके बाद भी संसार की मोह-माया और जिजीविषा तुम्हारे भीतर अभी भी जवान है। अब तो आत्म-चिंतन, ईश्वर का चिंतन करना शुरू कर दो। अब तो कम से कम अपने जीवन के लिए कोई बोध, कोई होश, कोई जागरूकता की बात उठानी शुरू कर दो। अपने हाथ से तुमने स्वर्गीय दादा-दादी को जलाया था, पर होश नहीं आया। और तो और बीस साल के बेटे का भी अपने हाथों से दाह संस्कार किया था तब भी तुम्हारे अन्तर्मन की आसक्ति में कोई कटौती नहीं हुई। हाँ, हम अपने बुढ़ापे को सार्थक कर सकते हैं, इसे नई दिशा दे सकते हैं, इसे बंधन के बजाय जीवन-मुक्ति का पर्याय बना सकते हैं। रफ़्ता-रफ़्ता रिस रही ज़िंदगी
व्यक्ति जब पचास वर्ष का हो जाए तो वृद्धावस्था की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। यह न सोचें कि बुढ़ापा मुझे नहीं मेरे पड़ौसी को आया है। तब तो मुश्किल हो जाएगी क्योंकि एक दिन बुढ़ापा आपको अपने चंगुल में फँसा ही लेगा। जीवन तो शिवलिंग पर लटका हुआ पानी का वह घड़ा है जिसमें नीचे की ओर छेद है और बूंद-बूंद कर पानी रिस रहा है। कौन-सी बूंद अंतिम बन जाएगी इसकी तो हमें खबर भी नहीं हो पाएगी। हमारी जिंदगी धीरे-धीरे रिस रही है। सभी रफ्ता-रफ्ता मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं। हम बुढ़ापे को इस तरह जिएँ कि वह जीवन का पड़ाव बनें, मृत्यु का नहीं। ____ मैं उन लोगों को सतर्क करना चाहता हूँ जो आज बुढ़ापे की दहलीज़ पर हैं, लेकिन आने वाला कल बुढ़ापे का है। सावधान हो जाएँ वे लोग जो कल तक तो जवान थे पर आज बुढ़ापे में जीने को मज़बूर हैं। जिन्हें जीवन जीने की
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