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मित्र स्कूल के होते हैं, बाजार के होते हैं, व्यापार के होते हैं, लेकिन उनके पाँव घर तक नहीं पहुँचने चाहिए। अगर आपका पुत्र जवान हो चुका है, उसके मित्र घर पर आ रहे हैं और घर के सदस्यों से निकटता बना रहे हैं तो आपके घर में कोई अनहोनी हो सकती है। पुत्र के दोस्त बाहर तक रहें तो ज्यादा अच्छा है, जिस दिन पुत्र के दोस्त घर तक पहुँच गए, जान लें कि अब आपकी बहु-बेटी सुरक्षित नहीं रहेगी।
मित्र बनाएं लेकिन एक सीमा तक। दोस्तों की भीड़ इकट्ठी न करें। कुछ लोगों की आदत होती है अपने परिचयों को बढ़ाने की। मेरे यह भी परिचित, वह भी परिचित हैं, थोड़ी सी बात चलाओ तो तुरंत कहेंगे हाँ, हाँ वह तो मेरा परिचित है, खास दोस्त है। न तो राह चलते आदमी का विजिटिंग कार्ड लो और न ही हर किसी को अपना विजिटिंग कार्ड दो। ज्यादा परिचयों को बढ़ाना अच्छी बात नहीं है। अगर आपके ढेर सारे मित्र हैं तो मानकर चलें कि आपका एक भी मित्र नहीं है। बुरे वक्त में सारे मित्र यही सोचेंगे कि अगर हम काम नहीं आए तो क्या और भी मित्र तो हैं । जैसे ज़िंदगी में पति या पत्नी एक होती हैं, संतानें दो-चार होती हैं, माता-पिता एक होते हैं वैसे ही जीवन में मित्र भी दो-चार से ज्यादा नहीं होने चाहिए। मैत्रीभाव सबके साथ रखो, प्रेम की भावना भी सबसे रखो, लेकिन जिन्हें अपना मित्र मानते हैं, उनके प्रति बहुत सजग रहें। हम कहते हैं 'मित्ती मे सव्व भूएसु' यह प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव की सोच है, लेकिन निजी मित्र सावधानी से बनाएँ।
व्यक्ति के जीवन में संगत का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति को जैसी सोहबत और निकटता मिलती है, वह धीरे-धीरे वैसा ही होता जाता है। अगर आप चरित्रवान लोगों के बीच जीते हैं तो आप चरित्रशील होंगे। अगर आप सेवाभावी लोगों के बीच रहते हैं तो आपके भीतर सेवा की भावना पैदा होगी। अगर आप सुसंस्कारित लोगों के बीच रह रहे हैं तो आपके भीतर ससंस्कार आएंगे। अगर आप दूध की दुकान पर खड़े होकर शराब पिओगे तो लोग समझेंगे दूध पी रहे हो और शराब की दुकान पर खड़े होकर दूध भी पिओगे तो लोग यही
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