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________________ सुखी हो सकते हैं, सड़क पर दुःख पा सकते हैं लेकिन भीतर का आनन्द प्राप्त कर लेने पर आप राजमहल और सड़क दोनों जगह प्रसन्न रह सकते हैं। जब आनन्द हमारा स्वभाव बन जाएगा तब हम धन कमाएँ या गँवाएँ, सुखी ही रहेंगे। आज मनुष्य की हालत गम्भीर होती जा रही है। एक गहरा सन्नाटा छा गया है अंतरात्मा में। भीतर के अस्तित्व में न कोई स्वर बचा है, न अहोभाव का संगीत। भीतर के गीतों की, आनन्द, उत्सव और धन्यता की हत्या हो गयी है। जिस घड़े में अमृत होना था बदनसीबी से आज उसमें ज़हर भरा है। जहाँ सोना होना था जहाँ राख उड रही है। अस्तित्व में आए तब फूलों की संभावनाएँ लेकर आए थे लेकिन अब खुद ही काँटे बन गये हैं। आपने देखा, रोज सुबह सूर्य कितना प्रसन्नमुख उदित होता है, फूल कितने पुलकित भाव से खिलते हैं, पक्षियों की चहचहाट कितनी प्रसन्नता से होती है। पर मनुष्य! उदासी भरे क्षणों में उसकी सुबह होती है। रात-भर विश्राम मिला इसलिए सुबह चेतना को और अधिक प्रफुल्लित, सशक्त होना चाहिये, पर यहाँ तो उल्टी गाड़ी चलने लग गयी है। किसी घर में जाकर देखो, लोग सात-आठ-नौ बजे तक तो सोये मिलेंगे। फिर जैसे-तैसे उनकी आँख खुलवाओ तो लगेगा जैसे किसी मूर्च्छित को उठा रहे हैं, ऐसी उदासी। बिस्तर से उठाओ तो सोफे पर जाकर गर्दन झुका लेंगे, वहाँ से उठाओ तो कहीं और । मेरे प्रभु, जो समय प्रकृति से अपूर्व आनन्द पाने का था, आत्मोत्सव मनाने का था, उस समय हम सोये रह गये, उदास और हताश बन रह गये। __पता है इस ध्यान-शिविर की अभी पूरे शहर में चर्चा है। अगर इसका समय बदल दूँ तो यहाँ हज़ार लोग इकट्ठे हो जाएँगे। मैंने इसीलिए सुबह छह बजे का समय रखा ताकि वे लोग ही आएँ, जो सुबह जागे-जागे जीवन का आनन्द पाना चाहते हैं। अब वे लोग अपने जीवन को आनन्दपूर्ण कैसे कर पाएँगे, जो भोर होने पर भी सोये हैं। आप यहाँ जब प्रात:काल में ध्यान में डूबकर अपनी चेतना को जगा रहे होते हैं, जीवन के अपूर्व आनन्द में डूब रहे होते हैं, तब भी शहर के आधे लोग सोये-सोये खर्राटे भर रहे होते हैं। फिर भी मैं प्रसन्न हूँ, इस सोयी हुई दुनिया में कुछ लोग तो जगे स्वयं को आत्मसात करने के लिए। ___ आदमी सब कुछ पाकर भी खाली ही जी रहा है। कहीं कोई उमंग नहीं है. तरंग नहीं है उसमें अपने जीवन के प्रति। जिसने निजानन्द स्वरूप को पहचान लिया, उसके जीवन का मरुस्थल भी मरूद्यान बन जाता है, उपवन हो जाता है। भीतर का स्रोत उमड़ आता है। फूल खिल उठते हैं। एक साथ होली और दीवाली हो जाती है। | 95 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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