SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस पर पड़ गई। उसने सोचा, यह निर्वस्त्र फ़कीर, इसके हाथ में यह रत्नजड़ा पात्र कहाँ से आ गया। यह तो माँग कर खा रहा है, वह भी स्वर्ण-पात्र में। चोर ने फ़कीर का पीछा करना शुरू किया। दोपहर का समय था, नागार्जुन अपनी कुटिया की ओर जा रहे थे। उन्हें शक हो गया कि यह आदमी, जो पीछे आ रहा है, इसकी नीयत ठीक नहीं है। नागार्जुन अपनी कुटिया में चले गए और चोर कुटिया के पीछे छिपकर बैठ गया। उसने सोचा, जब यह संत फ़कीर सो जाएगा, तब मैं पात्र उठाकर ले जाऊँगा। नागार्जुन को भी विचार आया कि अवश्य ही यह आदमी इस पात्र को लेने आया है। बेचारा नाहक ही दो घंटे प्रतीक्षा करेगा। क्यों न खुद ही उसके लिए इस पात्र का त्याग कर दें। उन्होंने वह पात्र उठाया और खिड़की से नीचे गिरा दिया। चोर भौंचक्का रह गया। सोचने लगा मैं तो इसे चुराने के लिए संत के पीछे-पीछे आया था और इन्होंने इतनी निस्पृहता से इसे बाहर फेंक दिया। ज़रूर कोई ख़ास बात है। वह कुटिया के दरवाजे पर पहुँचा और पूछा, फ़कीर साहब! क्या मैं भीतर आ सकता हूँ, संत ने कहा, 'मैंने तुम्हें भीतर बुलाने के लिये ही यह पात्र बाहर फेंका था। मैं नहीं चाहता था कि जब मैं सोया हुआ होऊँ, तब तुम कुटिया में आओ। मैं जागा रहने पर तुम्हें कुटिया में देखना चाहता था।' वह चोर नागार्जुन के पैरों में गिर पड़ा, कहने लगा। आप धन्य हैं । आपने सोने के पात्र को ऐसे फेंक दिया जैसे यह मिट्टी का पात्र हो। सोना और माटी ! जहाँ कोई माटी का बर्तन छोड़ने को तैयार नहीं होता, वहाँ नागार्जुन सोने का पात्र बेझिझक गिरा देते हैं। ठीक वैसे ही जैसे पेड़ पत्तों को झाड़ देता है। हमारे पास लाखों रुपये हो सकते हैं, पर नागार्जुन जैसी अनासक्ति नहीं है । बुद्ध जैसी शांति नहीं है। अकूत सम्पत्ति के स्वामी हो पर लाओत्से जैसा आनन्द अभी हमारे पास नहीं है। किसी फैक्ट्री के मालिक भी हो पर कृष्ण की बाँसुरी से नि:सृत होने वाला रस हमारे पास नहीं है। हम आनन्द लूटना नहीं जानते हैं। प्रकृति ने तो हमें बहुत कुछ दिया। महावीर तो निर्वस्त्र होकर जंगलों में भी जीवन का आनन्द ले सकते हैं और लोग सारी सुख-सुविधाओं के बीच भी जीवन का आनन्द नहीं ले पाते। सुख प्राप्त कर सकते हो, दुःखी हो सकते हो, लेकिन आनन्द का अनुभव नहीं कर पाते हो। अनेकों बार जीवन में सुख-दु:ख की अनुभूति होती है लेकिन आनन्द से अछूते रह जाते हो। सुख-दुःख की अनुभूति देह, चित्त और मन को होती है लेकिन आनन्द की अनुभूति, यह तो आत्मा का स्वभाव है। आप राजमहल में रहकर 94 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy