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________________ कुछ पल में दोनों घुड़सवार आमने-सामने खड़े थे। दोनों की तलवारें हीरे पर टिकी थीं। दोनों हीरे पर हक जतला रहे थे। कोई निर्णय हो न पाया, तलवारें खिंच गयीं। क्षण भर में दो लाशें पड़ी थीं - तड़फती! तड़फती!! हीरा अपनी जगह मौन था। सूर्य की किरणें अब भी चमक रही थीं। लेकिन इतने समय में सब कुछ हो गया। एक के अन्तर में संसार उठा और वैराग्य में बदल गया। दो जो अभी-अभी जीवित थे, उन्होंने पत्थर पर प्राण न्यौछावर कर दिये। भतृहरि ने कुछ सोचा, आँखें बंद की और ध्यान में डूब गये। उस निर्जन वन में पड़ा हुआ हीरा शायद नहीं जानता था कि कोई उसकी ओर आकर्षित हो गया है। अपने ध्यान से, केन्द्र से विचलित हो गया है और हीरे को शायद यह भी पता नहीं है कि दो लोग लड़े और अपनी जान गँवा बैठे हैं। मेरे देखे, इस धरती पर कुछ भी ऐसा नहीं है, जो हमें आकर्षित कर रहा हो। हाँ, हम आकर्षित हो रहे हैं। अगर एक लम्बे अर्से तक ध्यान में रमण करते रहें, तो ध्यान तुम्हें एक ऐसी आन्तरिक शक्ति देगा, एक ऐसा बल कि पर-पदार्थों का आकर्षण स्वतः ही खो जायेगा। जब जीवन में यह साधना सध जाती है तो हमारा जीना सार्थक हो जाता है। अन्यथा जब हम इस धरती पर आए थे, तब मूर्छित अवस्था में थे और जब जाएँगे तब भी शायद ही यह बोध रहे कि हम जा रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम सारा जीवन ही बेहोशी से जीये। यह ध्यान-शिविर हमारे जीवन में अरुणोदय है, आखिर बिस्तर पर कब तक सोए रहोगे। अब अंगड़ाई लेकर उठने की बेला आ गयी है, उठो और जीवन में बिखरा हुआ स्वर्ण समेटो। पृथ्वी पर आना तो मूर्च्छित अवस्था में हो सकता है, लेकिन अपने जीवन में ध्यान को ऐसे घटित कर लो कि जाते समय मृत्यु का पूरा बोध रहे। आप इतने जाग्रत, इतने जीवन्त हो जाएँ कि मृत्यु को भी साक्षी-भाव में देख सकें । आपने देखा होगा कि अधिकांश व्यक्ति मृत्यु की अवस्था आने पर प्रायः मूच्छित दशा में होते हैं। ध्यान यह उपलब्धि कराता है कि व्यक्ति होश के साथ जागा हुआ लौटता है। शरीर, विचार, अनुभूति, भाव, अन्तस् में होने वाले स्पंदनों के प्रति भी होश जग जाता है तो यह जीवन की उपलब्धि है। होशपूर्वक अगर वह नरक में भी जाएगा, तो वहाँ भी स्वर्ग बना देगा क्योंकि वह नरक को स्वर्ग बनाने की कला जानता है। मेरा आपसे निवेदन है कि हमारे भीतर जो दुष्प्रवृत्तियाँ समाई हैं उन्हें पहचानने की कोशिश करें। ध्यान करें। ध्यान के द्वारा उन्हें बाहर निकालें। ध्यान में जब मैं 901 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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