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________________ तीसरी दशा में प्रवेश दिलाता है। हमारे भीतर सजगता को जन्म देता है। एक विशेष प्रकर की सजगता, जागरूकता। अन्यथा हमारी बेहोशी हम पर इतनी हावी है कि एक सपना भी हम पर हावी हो जाता है। और कभी-कभी तो स्वप्न को ही हम वास्तविकता मान बैठते हैं। भले ही जागकर हम कह दें सपना बेतुका था, भ्रम था। लेकिन फिर भी जब वह चल रहा था, तब हम पूरी तरह से उसमें खो गये थे। आखिर स्वप्न इतना शक्तिशाली कैसे हो गया। मैं तो कहूँगा कि हम शक्तिहीन थे इसलिए वह शक्तिशाली हो गया। इसलिए एक बात हमेशा स्मरण रखो। जब हम शक्तिशाली होते हैं तो पर-पदार्थ भी हमें प्रभावित नहीं कर पाते। अगर भीतर से सजग हो गये तो निकट से कोई सुन्दर स्त्री निकल जायेगी या सुन्दर पुरुष गुजर जाएगा, क्रोध-प्रेम के निमित्त आएँगे, पर हमारे भीतर कहीं कोई तरंग उत्पन्न नहीं कर पायेंगे। हमें अपनी चेतना की ऐसी ही अवस्था को उपलब्ध करना है। मैं जानता हूँ कि शिविर जितने दिनों में यह सब कुछ हो नहीं पायेगा। लेकिन यात्रा तो प्रारम्भ हो जायेगी, पगडंडी पर चढ़ तो जाओगे। अगर इतना ही हो गया तो इसे मैं शिविर की सबसे बड़ी सफलता मानूँगा। जब ध्यान में बैठते हो, विशेष रूप से सायंकालीन ध्यान में, संबोधि-ध्यान में तब विचार सबसे ज्यादा प्रभावित करते होंगे। उस समय अगर उन विचारों को, और विचारों से उपजने वाले दृश्यों को हम साक्षी और दृष्टा बनकर निहारते रहें, उनकी विपश्यना करते रहें, तो वे कभी हमें प्रभावित नहीं कर पायेंगे। वे सब वैसे ही गुज़र जायेंगे जैसे पर्दे पर चलचित्र । अपने अन्दर श्वास-श्वास में साक्षित्व उपलब्ध कर लो। आत्मगत भाव में बँधे रहो। परिणाम यह निकलेगा, तुम कभी वस्तुओं में खो नहीं पाओगे। मेरे देखे, जो आत्मगत भाव में बना रहता है, वह स्वयं में बना रहता है। हमारे जीवन का हर क्षण एक अवसर है। हम इस क्षण को खो भी सकते हैं, और उपयोग भी कर सकते हैं। एक ही अवसर में कोई उपलब्ध होकर आयेगा, कोई खोकर। भर्तृहरि के जीवन की एक प्यारी घटना है। कहते हैं वे जंगल में साधना में लीन थे। अचानक आवाज़ आई। आँख उघाड़ी, देखा, तो घुड़सवार दो दिशाओं में भागते चले आ रहे थे। जब सामने की ओर नज़र डाली, तो देखा सूर्य की रोशनी में एक हीरा चमक रहा था। भर्तृहरि जो कभी राजा थे, कई हीरे उनके हथेली से गुजरे थे, लेकिन ऐसा हीरा कभी नहीं देखा था। पल भर के लिए सोचा, उ→ और इसे पा लूँ। लेकिन पुनः चेतना जाग्रत हुई और मन इन्कार कर गया। उठी तरंग फैल न पायी, वहीं की वहीं अन्तर्सागर में समा गयी। क्षण भर बाद उन्होंने जीवन में अभिनव कान्ति का अनुभव किया। 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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