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________________ रजकण मेरे, द्रुमकण मेरे, पर्वत मेरे, सौरभ मेरा! वह सब मेरा, जो मुक्ति मधुर, वह रहा तुम्हारा, जो बंधन! तुम रखो स्वर्ण-पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन ! मेरे प्रभु, अगर चाहो तो तुम्हारे साथ ऐसा हो सकता है। बस, परिवार में रहते हुए भी एक समझ पकड़ लो, बोध पकड़ लो। ध्यान का दीया जला लो, अगर ऐसा होता है तो परिवार के बीच रहते हुए भी तुम्हारे भीतर घटित होने वाला एकाकीपन तुम्हें जिनत्व की उपलब्धि करवा देगा। फिर आपके जीवन का अँधेरा भी उजाला हो जायेगा। रात भी दिन और मृत्यु भी अमृत हो जायेगी, और अभी तो ध्यान में सिर्फ तुम्हारी आँखें भीगती हैं, फिर आत्मा भी भीग जायेगी। आनन्द आपके पोर-पोर में समा जायेगा। अकेलेपन का दुरुपयोग और सदुपयोग दोनों किए जा सकते हैं। अकेलेपन से घबराकर व्यक्ति या तो पागल हो जायेगा या उसमें डूबकर समाधि को उपलब्ध हो जाएगा। किसी व्यक्ति को तीन माह के लिए कमरे में बंद कर दो। सिर्फ भोजन-पानी देते रहो। अगर उसमें अन्तर्दृष्टि नहीं है, तो वह पागल हो जाएगा और भावदृष्टि जगी हुई है, तो समाधि को उपलब्ध हो जाएगा। यह हम पर निर्भर है कि हम इस अकेलेपन का कैसे उपयोग करते हैं । प्रायः जीवन में अकेलापन बेहोशी ही देता है। यह तो किसी-किसी का सौभाग्य होगा कि दुनियादारी की उलझनों से निकलकर एकांतवास में स्वयं को साक्षात्कार कर सके। संत हिमालय की गुफाओं में इस अकेलेपन को पाने के लिए ही वास करते हैं। जो परमात्मा यहाँ है वही हिमालय की गुफाओं में भी है, लेकिन वहाँ पहुँचकर व्यक्ति बाह्य वातावरण से दूर रहकर स्वयं में जाने का प्रयास करता है। यह एकाकीपन प्रज्ञावान व्यक्ति के जीवन के रूपान्तरण में सहायक होता है। उसके जीवन में समाधि के द्वार खोल देता है। उसके जीवन में प्रेक्षा, विपश्यना और साक्षीभाव की उपलब्धि कर देता है। आप प्रतिदिन ध्यान में डूब सकते हैं, बशर्ते एकाकीपन में मिलने वाले प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करें। जब भी अकेले हों, अकेलेपन का आनन्द उठाएँ। उतरें, भीतर उतरें - गहरे और गहरे। स्वयं का विस्मरण ही मनुष्य के भव-भ्रमण का कारण है। अपने को भूल जाने के कारण ही 'आप' भटक रहा है। आप यानी अप्पा। आप यानी आत्मा। आप यानी हम। आप जब आप में उतरा है, आत्मा आत्मा में उतरी है, तो आप अपने आप उपलब्ध हो जाता है, आपोआप' मिल जाय - अपने आप मिल जाता है । आँखों में उतर आता है नूर आत्मा का, अपने आपका, परमात्मा का, निजत्व का। 71 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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