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________________ इस सत्य को कभी मत भूलना कि इस दुनिया में स्वयं को छोड़कर कुछ भी शाश्वत नहीं है। एक मात्र आत्मा ही ऐसा तत्त्व है, जिसकी शाश्वतता पर संदेह नहीं हो सकता। जो आत्मा में उतर गया, भीतर के सागर में डुबकी लगा ली, उसे तो स्वतः ही परमात्मा की उपलब्धि हो गयी। आत्मा में डुबकी लगाने का नाम ध्यान है और जब डुबकी लग जाये, तो उसका नाम समाधि है। ध्यान अभ्यास है और समाधि अभ्यास की पूर्णाहुति है। जो अन्तर में उतर गया, उसे अनुभूति हो गई 'मैं' हूँ और यही मैं सबके अन्दर व्याप्त है। इसलिए पहला प्रयास यह करो कि स्वयं की चेतना पर जितने सन्देह के पर्दे डाले हुए हैं, उन्हें उघाड़ने का प्रयत्न करो। फिर तो तुम्हारे संसार के पिंजरे अपने आप छूट जायेंगे। भले ही वे पिंजरे सोने के हों, लेकिन मुक्त गगन के पंछी के लिए तो बंधन ही है। मेरे प्रभु! उड़ान भरो-मुक्त गगन में। जिसे एक बार पंख फड़फड़ाने का मज़ा आ गया फिर तो लाख उपाय कर लो तो भी रोक नहीं पाओगे। भला उसे स्वर्ण-पिंजर भी लालायित कैसे कर पायेगा, जिसने अपना पथ मुक्त-गगन को बना लिया है। भले ही पिंजरा हीरे-जवाहरातों से जड़ा हुआ हो, लेकिन उसके बावजूद अन्ततः आनन्द और जीवन-मुक्ति पिंजरे, संसार में नहीं, मुक्त गगन में ही है। तुम रखो स्वर्ण-पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन। गत युग की याद दिलाते हो, था दुर्ग तुम्हारा वह उन्नत, प्रसाद दुर्ग में वृहत् और उसमें वह पिंजर स्वर्णवृत्त। अरमान विकल थे यौवन के, तन बंदी था, मन था उन्मन ! तुम रखो स्वर्ण-पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन ! बंधन में फँसने के पहले यह सत्य जान मैं था पाया नभ छाया है इस धरती की, धरती है इस नभ की छाया, दोनों की गोद खुली, चाहे मैं नभ में मुक्त उड़ान भरूँ, चाहे धरती पर उतर, तृणों, रजकणों आदि को प्यार करूँ, अपना विभ्रम, अपना प्रसाद, बँध गया एक दिन बंधन में। वे दिन भी काट लिये मैंने, छल को पहचाना जीवन में अब तोड़ चुका हूँ, मैं बंधन कैसे विश्वास करूँ तुम पर? तुम मुझे बुलाते हो भीतर, मैं तुम्हें बुलाता हूँ बाहर! देखो तो स्वाद मुक्ति का क्या, कैसा लगता है स्वैर पवन ! तुम रखो स्वर्ण-पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त-गगन। फिर सबके पास लौट आया, अब धरती मेरी, नभ मेरा। 70/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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