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________________ भगवान महावीर के जीवन में एक प्यारा उल्लेख है । कहते हैं, महावीर ने संकल्प लिया था कि माता-पिता के रहते मैं साधु नहीं बनूँगा, और जब माता-पिता का देहावसान हो गया, तो महावीर ने अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन से कहा कि आज्ञा दे दें प्रव्रज्या की । मैं तो बस माँ की वज़ह से रुका था । नन्दीवर्धन ने कहा, 'गज़ब की बात करते हो । अभी-अभी तो माँ का देहावसान हुआ है, एक पहाड़ टूट कर हमारी छाती पर गिरा है, अब तुम दूसरा गिराना चाहते हो। अभी नहीं जब मैं कहूँ तब लेना ।' महावीर फिर रुक गये और दो वर्ष में तो भाई ने भी आज्ञा दे दी। क्योंकि दो वर्ष महावीर घर में रहे और इस अवधि में ध्यान में इतने गहरे उतर गये, ऐसे मौन हो गये कि उनकी उपस्थिति घर में न के बराबर हो गई। लोग गुज़र जाते, उन्हें पता ही नहीं चलता। वे स्वयं गुज़र जाते, लोगों को पता नहीं चलता । आखिर भाई नन्दीवर्धन को लगा कि महावीर को अब रोकना व्यर्थ है । अब सिर्फ शरीर रुका है, चेतना तो चैतन्य-धरा से जुड़ी है। और अन्ततः खुद बड़े भाई को कहना पड़ा अब मैं नहीं रोकूँगा, जैसा अच्छा लगे वैसा करो । मनुष्य इस संसार में एक परदेशी है। किसी का कोई घर नहीं है, सब बेघर हैं और कोई संभावना भी नहीं है कि कोई घर बन सके। थोड़े दिन के लिए हम भले ही धोखा खा लें, अपने मन को राहत दे दें। लेकिन आज यह जो भी घर दिखाई दे रहे हैं, आज नहीं तो कल उजड़ेंगे। एक दिन तो सबका इस दुनिया से डेरा उठना है। आखिर, मौत से बचने का उपाय कहाँ है मनुष्य के पास । कौन है इस दुनिया में, जिसे तुम अपना कह सकते हो। अभी तक तो हम भी अपने नहीं हैं । दूसरों को अपना मानने की भूल क्यों कर रहे हो। यह मन भी अपना नहीं है। यह शरीर भी अपना नहीं है । यह मिट्टी का है और वक्त आने पर मिट्टी में ही समाने वाला है । - कमरे की कब्र में कम्बल का कफ़न ओढ़े हुए, खुले दरवाजों से बाहर की तरफ ताकता रहा, मेरी आवाज़ भी जैसे मेरी आवाज़ न थी, भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था । Jain Education International मेरे प्रभु ! अब अपने असली घर को याद करो, कहाँ से आये हो और कौन हो । ढूँढ़ो इसे, अपने अन्तर में । बिना इसे जाने कोई भी आनन्द और धन्यता को उपलब्ध नहीं हो पाया है। अगर इसे न पहचान पाये तो जीवन में जो कुछ भी होगा सिवा प्रवंचना के और कुछ नहीं होगा । | 69 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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