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________________ अंधकार को कैसे कम किया जाये और दूसरा, प्रकाश को कैसे फैलाया जाये। जिस क्षेत्र का विचार होगा, चिन्तन उसी क्षेत्र में चलेगा। जो अंधकार को मिटाने में लगा है, वह हर समय अंधकार के बारे में सोचता रहेगा और जो प्रकाश को उपलब्ध करने में लगा है, वह प्रकाश का चिन्तन करेगा। अंधकार से न तो हम लड़ पाएँगे और न ही उसे हरा पाएँगे। कोई भी तलवार इसे काट नहीं पायेगी। क्योंकि अंधकार की कोई सत्ता नहीं होती, सत्ता हमेशा प्रकाश की होती है। जीवन और धर्म का नकारात्मक नहीं, सकारात्मक उपयोग करें। अशांति से बचने की फिक्र छोड़ो। विधायकता को अपनाओ। आनन्द को उपलब्ध करो। अगर चाहते हो कि तुम पर आनन्द की वर्षा हो, तो प्रतिपल आनन्द को बाँटना सीखो। अंग्रेजी में एक शब्द है 'चियरफुलनेस' यानी खुशियों को बाँटते हुए जीना। ध्यान भीतर में आनन्द को फैलाने की ही प्रक्रिया है। अगर जीवन आनन्द से जी रहे हो, तो यह हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जो वर्तमान में प्रमुदित नहीं है, उसका भविष्य प्रमुदित कैसे होगा। जिन लोगों के भीतर ध्यान का रस जगा है, आनन्द, उत्सव और धन्यता को उपलब्ध करने के भाव जगे हैं, वे अद्भुत सुगन्ध को भीतर में आमन्त्रित कर रहे हैं। __ध्यान हमें उदासी नहीं देगा। बाहर की दुनिया को भले ही लगे कि जैसे-जैसे आप ध्यान के मार्ग में आगे बढ़ते जा रहे हो, वृत्तियों से ऊपर उठते जा रहे हो, वैसेवैसे उदासीन होते जा रहे हो। लेकिन यह बाहर की औदासीन्य-वृत्ति हमें भीतर से अत्यन्त प्रफुल्लता देगी। ये खुशी के झूठे मुखौटे, जो हमने लगा रखे हैं, इनमें बाहर से, दुनिया की नजरों में तुम प्रसन्न-प्रफुल्लित दिखाई दोगे, पर अन्तर का सत्य कुछ और ही होगा। भीतर में कहीं कोई रस न होगा, कोई उत्सव नहीं होगा। जिस दिन भीतर में आनन्द और अहोभाव प्रकट होगा, उस दिन हमारे उठने-बैठने में भी फूल झरेंगे। इस भीतर के अहोभाव में ही अध्यात्म होगा, मुक्ति होगी, यह अहोभाव ही मोक्षदायी होगा। भीतर की उदासी के साथ अगर खिला हुआ फूल भी हम परमात्मा के द्वार तक ले जायेंगे, तो वह फूल भी उदास हो जायेगा। परमात्मा के द्वार पर मूल्यवत्ता फूलों की नहीं, उन प्राणों की है, जो फूल को लेकर आते हैं। सुबह हुई और आप उठ आये हैं। कभी आपने सोचा, सुबह उठते ही आपने क्या किया? क्या एक प्रमोदभाव और अहोभाव की दृष्टि हमें उपलब्ध हो पायी? क्या सुबह उठते ही परमात्मा को धन्यवाद दिया कि उसने एक सुबह और दी, अँधेरे से प्रकाश और निद्रा से जागरण की? क्या कभी इसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित की? नहीं, जीवन के प्रति हमारे हृदय में न कोई धन्यता है और न कोई कृतज्ञता। हम जीवन के लिए कृतज्ञता ज्ञापित नहीं कर पाते । सृष्टि की महानतम उपलब्धि के लिये भी नहीं। 321 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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