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________________ और सहजो बाई जैसी भक्ति-गंगा का अमृत प्रवाहित किया है। जिन्होंने कोई वैज्ञानिक आविष्कार तो नहीं किए पर स्वयं के आविष्कार से जगत् को प्रकाश से भर दिया। वास्तव में जिसने अन्तर-स्वरूप की तलाश कर ली, उसने सम्पूर्ण अस्तित्व को तलाश लिया। ध्यान स्वयं की तलाश का साधन है। जब मृत्यु निकट आएगी और स्वयं से ही पूछोगे कि जीवन में क्या खोया, क्या पाया, तो पता चलेगा कुछ भी हाथ में नहीं है। जीवन व्यर्थ ही चला गया। भौतिक सम्पदा यहीं रह गयी। देह भी यहीं रह गई। सारे जड़ पदार्थ यहीं रह गए और परेशानी इसी बात की है कि पूरा जीवन इन्हीं जड़पुद्गल और अचेतन तत्त्वों से जुड़ा रहा, उलझा रहा। सरल शब्दों में ध्यान का अर्थ है साक्षी का प्रादुर्भाव होना। यहाँ शिविर में जो ध्यान कर रहे हो वह तो ध्यान की प्रक्रिया है। यहाँ से जाने के बाद घर पर कसौटी होगी। आप घर पहुँचे, वहाँ आपके बच्चे से काँच का गिलास फूट गया। क्षण भर के लिए आपको आवेश आया। आप तुरंत सोचें अगर मैं यहाँ न होता तो...! व्यक्ति हर कृत्य में साक्षी और दृष्टा-भाव में लौट आए तो तन-मन प्रतिक्रियान्वित नहीं होगा। __ मैं चाहता हूँ कि आप तनाव और चिंता में नहीं, आनन्द और प्रसन्नता से जीयें। मनुष्य का जीवन गीत और नृत्य से भरा हो। वह मात्र किसी परलोक के स्वर्ग की तलाश में जीवन न जीये, अपितु वर्तमान को भी स्वर्ग बनाने का प्रयास करे। मुझे पूरा भरोसा है कि इस धरती पर अगर घट-घट में ध्यान की धारा प्रवेश कर ले, तो धरती स्वयं स्वर्ग बन जायेगी। जगत् में देखो फूल खिल रहे हैं, तारे टिमटिमा रहे हैं, पक्षियों की चहचहाहट में प्रसन्नता के सुर हैं। लेकिन मनुष्य विकास की लाख दुहाइयाँ देने के बावजूद उदास है, बोझिल है, चिंतित है। और इस बोझिलता ने हमारे भीतर में खिल सकने वाले फूल को दबा दिया है, भीतर की मुस्कराहट का गला घोंट दिया है। ध्यान हमारे भीतर के फूल को खिलाने की प्रक्रिया है। जिस दिन इस धरती पर भीतर के आनन्द को उपलब्ध लोग धर्म के मार्ग पर बढ़ेंगे, उस दिन वह मार्ग फूलों से भर जायेगा। अब तक हम खोज करते रहे, अशांति को कम कैसे करें, दु:ख को कम कैसे करें। यह नकारात्मक दृष्टि हमारे लिए हानिकारक बन सकती है। हम अपनी दृष्टि को जरा संशोधित करें। हमारा प्रयास हो कि जिंदगी में शांति कैसे बढ़े, आनन्द कैसे बढ़े, अहोभाव के फूल कैसे खिलें। वैसे तो सामान्य दृष्टि से दुःख कैसे कम हो या शांति कैसे बढ़े, दोनों एक जैसी बातें लगती हैं लेकिन इन दोनों में आधारभूत फ़र्क है। कमरे में अँधेरा है। हमारे मन में दो तरह के विचार पैदा हो सकते हैं। एक, | 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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